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पावनि-तिहार                                                       छठिपर्व      

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विध-विधान        शक्‍ति स्वरूप सूर्यक उपासना ‘छठिपर्व’           प्रो. कृष्ण कुमार झा 

शक्‍ति स्वरूप सूर्यक उपासना ‘छठिपर्व’

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विराजमान ग्रह, नक्षत्र, तारा आदिक चक्रवर्ती सम्राट स्वरूप भगवान सूर्य प्रत्यक्ष देव छथि । प्रतिदिन नियत समय पर उदय आ अस्त होए व दृढ़तापूर्वक बोधक आ दुनू समय समान वर्ण (लाल रंगक) होएव एकरूपताक प्रतीक मानव जीवन में सम्पत्ति वा विपत्ति दुनू अवस्था में एकरूप रहवाक उपदेश भेटैत अछि । भगवान सूर्य दिन, रात्रि, वर्ष आ युगाब्दि भेदक संचालक आ षडृऋतुक कारण छथि । अर्थात्‌ संसारक समस्त व्यवहारक आधार, दृढ़ताक प्रतीक परम ज्योति के प्रदाता, प्राणी मात्रक जीवन रक्षक, चराचर जगत में विद्यमान आ सर्वमान्य (सब धर्म मे उपास्य) छथि । आधुनिक विज्ञान मे सूर्यक ऊर्जाश्रोत के द्वारा अनेक उपलब्धि प्राप्त भेल अछि । असाध्य सँ असाध्य रोगक उपचार सूर्यक ऊर्जाश्रोत सँ कएल जाऽ रहल अछि । अनेक अनुसन्धान सूर्यक रहस्य के जानवाक प्रयास मे भऽ रहल अछि आ युगान्त तक चलैत रहत । 

भगवाण सूर्य के विषय मे आध्यात्मिक मान्यता विशदतया वर्णित अछि । सूर्यक उपासना सँ मनोवांक्षित फलक प्राप्ति अनेकशः वेद, पुराण आ शास्त्र में भटैत अछि । एहि प्रत्यक्ष देवक उपासना सँ चतुर्वर्ग फलक (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) प्राप्ति होइत अछि । प्रतिदिन प्रातः काल अर्ध्य देलासँ आ प्रणाम कएला सँ आयु, विद्या, यश आ बल के वृद्धि होइत अछि । 

आदित्यस्य नमस्कारं ये कुर्वन्ति दिने-दिने ।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्‌ ॥

विशेषतः मिथिला मे स्त्री वर्ग के द्वारा दिनकर दीनानाथ, छठिमैया आदि के द्वारा सूर्यक उपासना पारम्परिक रूप सँ विहित अछि । पुरुष वर्ग के द्वारा गायत्री देवीक रूप मे भगवाण सूर्य उपास्य छठि मैया, रना मैया आदि के रूप मे छठिपर्व मनाओल जाइत अछि । सूर्यक स्त्री स्वरूपक वर्णन लोककथाक अनुसार नारद जीक व्यामोहित स्वरूप के देखि सूर्य हास्य केने छल्गह, वोहि हास्य सँ क्रोधित नारद जी हुनका स्त्री होएवाक शाप देलखिन्ह । 

एक समय नारद जी त्रिलोक भ्रमण करैत स्त्री वर्गक मायिक ( माया सँ युक्‍त) आ लज्जा युक्‍त स्वरूप के देखि मुग्ध भए स्त्रित्वक प्रति आकर्षित भेलाह । अपन मनोव्यथा के प्रकट करवाकलेल विष्णु लोक गेलाह आ भगवाण विष्णु के समक्ष एहि रहस्य के जानबाक इच्छा प्रस्तुत कएलन्हि । भगवान नारदजीक लोक कल्याणकारी जिज्ञासाक पूर्ति हेतु हुनका संग स्वेतद्विप स्थित विन्दुसार तीर्थ निर्जन वन प्रान्त पहुँचलाह । वोहिठाम अपन मायाक विस्तार कय अत्यन्त रमणीय सरोवर के निर्माण कएलन्हि । दिनक तेसर प्रहर में नारदजी ओहि सरोवर मे स्नान-सन्ध्याक हेतु प्रवेश कैलैन्ह आ भगवान मायावश स्त्री रूप मे परिणत भऽ गेलाह आ स्त्री स्वभाव जन्य अङ्ग प्रत्यङ्ग के प्रच्छालन करैत सवाप्रहर (लगभग पौने चारि घंटा) स्नान मे मग्न रहलाह । नारदजीक व्यामोहित स्वरूप के देखैत भगवान सूर्य हँसऽ लगलाह सूर्यास्त सँ पौना (लगभग सवा दु घंटा) प्रहर पूर्व व्यामोह भंग भेलाक पश्‍चात्‌ नारद जी भगवान सूर्य के हँसैत देखलैन्ह । एहि हास्य सँ उद्विग्न नारदजी हुनका स्त्री होएवाक शाप देलखिन्ह । समस्त देव के द्वारा प्रार्थना कएला पर घटनाकाल कार्तिक शुक्ल षष्ठी कऽ युगान्त तक सूर्यास्त सँ पौना प्रहर पूर्व सँ सूर्योदय पर्यन्त स्त्री स्वरूप मे रहवाक नियम निर्धारित करैत शापक कठोर यातना सँ मुक्‍त कएलन्हि । 

एहि अवसर पर मिथिलाक स्त्री वर्गक द्वारा नियम-निष्ठा पूर्वक धन-धान्य, पति-पुत्र, सुख-समृद्धि आदिक हेतु पारम्परिक रूप सँ एहि ब्रत के करबाक विद्यान चलि आवि रहल अछि । एहि ब्रत में तीन दिनक कठोर उपवास होइत अछि । पञ्चमी कऽ दिन भरि उपवास कए सन्ध्याकाल लवण रहित (गुड़-युक्‍त खीर सँ खरना) भोजन कएल जाइत अछि । षष्ठी के निर्जल ब्रत राखि सूर्यास्त सँ पौना प्रहर पूर्व सँ अस्त होइत सूर्य के जल मे ठाढ़भऽ अर्ध्य देल जाइत अछि, आ रात्रि भरि उपासना मे लीन रहि उदय कालिक सूर्य के अर्ध्य दए छठिमैया, रनामैया आदि संज्ञा के द्वारा सम्बोधित कए ब्रती (स्त्री वा पुरुष) सूर्यक महिमामण्डित कथा श्रवण कए ब्रत समाप्त करैत छथि ।

प्रो. कृष्ण कुमार झा 


 कौजगरा 

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मिथिलाक बहु विख्यात पावनि "कौजगरा"

श्री मती पूनम झा

शरद ऋतु के आश्‍विन माँसक पुर्णिमा तिथि कय दूधसन उज्जर ठहाठहि इजोरियाक एहि राति के कोजगराक राति के नाम सँ ख्याति प्राप्त कयने, ई पावनि सम्पूर्ण मिथिलांचल मे महा चर्चा एवं उत्साह-उमंगक संग प्रतिवर्ष मनाओल जाईत अछि । 

एहि राति के मूलतः जागरण के राति मानल जाइत अछि, तैं एकर नाम जगरा भेल आ के जगति छथि तैं को जगरा भय गेल । समस्त मिथिला शक्‍ति पीठ मानल जाइत अछि । मूलतः मिथिला मे कालिकाक पूजा घरेघर होइत अछि । गोसाओन के कोनो शुभ कार्य वा पावनि तिहार मे प्रथम पूजा वा विधि व्यवहार होइत छनि, तदुपरान्ते कोनो आरो देवी-देवता के पूजन वा विधि होइत अछि । एहि कड़ी सँ जोरल एकटा पद्‍धति मिथिलाक परम्परा वनि गेल अछि, जे कोनो शुभ कार्य वा पूजन मे पहिने ओहि स्थल पर जतय ओ शुभ कार्य होयतैक अरिपण देल जाईत अछि । स्थान के चिकठानि माँटि सँ नीपि कय चाउर के पीसल पीठार सँ अरिपण के चित्रकारी कयल जाइत अछि । जनिका मांझ ठाम सिन्दुर के रेख सँ पहिने गोसाओन के स्थान सुरक्षित राखि-ओही चित्र पर समयानुसार शुभ कार्य कयल जाईत अछि । अरिपण पर पुरहर राखव आर्थिक सम्पन्‍नता तथा पुरहर पर दीप जरायव सुखद समृद्धि के द्योतक मानल जाईत अछि । कोजगरा पर्व मुख्य रुप से आर्थिक सम्पन्‍नता हेतु आश्विन पुर्णिमा के रात्रि मे जागरण कय लक्ष्मीक अराधना मे लीन रहवाक अछि शास्त्रोचित वात ई अछि, जे एहि राति लक्ष्मीक पूजन विधान करी वा नहि एकर मान्यता कम अछि, मुदा जौ एहि राति के कोनो रुपे जागि कय गमावी, तऽ लक्ष्मी के प्रसन्‍न करवाक साधन मानल गेल अछि । अगहन सँ अषाढ़ तक जे नव दम्पत्ति के विआह होइत छैन्हि हुनकर कोजगरा आश्विन मासक पुर्णिमा के राति मे मनाओल जाईत अछि । प्रतिवर्ष नव दम्पत्ति के कोजगरा होईत अछि, अर्थात विआहक बाद कोजगरा अवैत अछि । होइत छैक जे कान्यापक्ष क ओतय सँ वर पक्षक परिवारक वर (दुल्हा) सहित सभ सदस्य के नव वस्त्र आ संग मे चूड़ा दही, केरा मिठाई आ पर्याप्त मरवान के १०-२० भार साजि कय, किंवा भरियाक कमी रहला सँ स्थानीय कोनो व्यवस्था सँ पहुंचायल जाइत अछि । चूड़ा, दही, केरा, मिठाई जे कन्यापक्षक ओतय सँ अबैत छैक, ओकर भोज अपना समाजिक सम्बन्ध के मुताबिक वर पक्षक ओतय होइत अछि, संगे समस्त परिवार नव वस्त्र (जे कन्या पक्ष सँ अवैत अछि) धारण करैत छथि । आंगन के माँझठाम अरिपन देल जाइत अछि, तथा ओहि पर आसन दय वर के चुमाओन कएल जाइत अछि । तदुपरान्त दुर्वाक्षत सँ वर के दीर्घ आयु के मंगल कामना करैत गोसाओन के गोहरवति स्त्रीगण समाज वर के गोसाओन के अराधना मे लऽ जाईत छथि। वर गोसाओन के मनाय कय अपना सँ श्रेष्ट पुरजन, परिजन एवं समाज के चरण स्पर्श करैत छथि तथा सुभाशिष प्राप्त करैत छथि । एहि पावनि मे वर पक्ष समाजक हर समुदाय के लोक के हकार दय अपना ओहिठाम वजाबति छाथि तथा सनेस मे आयल मखान एवं वताशा (मिठाई) मिलाकय प्रयाप्त रुपेण बाँटि कय पान सपारी दय विदा करैत छाथि । एहि पावनि मे मखानक प्रधानता अछि । मखान एक प्रकारक विशिष्ट मेवा फल अछि । किशमिश, काजू, नारिकेर एवं अन्य कोनो मेवा मे जे पौष्टिक तत्व पायल जाइत अछि, मखान मे एकसरे ओ सभ पौष्टिक तत्व छैक । मिथिलाक जे भौगोलिक संरचना अछि, एहि मे जलक जमाव श्रोत वेसी छैक । जतय पर्याप्त मात्रा मे पोखरि धार नम्हर-नम्हर झील डावर आदि जल जमाव स्थल अछि, ततय मखान होइत अछि ।

मिथिलाक भू-भाग पर मरवानक उपज आदि काल सँ जतेक होईत अछि ओतेक उपज एहि विशिष्ट मेवा क आओरो कोनो ठाम नहि अछि । अखाढ़क अन्त तक मरवान के नवका फसिल पानि सँ निकालि साओन भादव मास तक एकर लावा अ;अग कयल जाइत अछि । गाम घर सँ वजारक दुकान तक मे ई मेवा वहुतायक रुप मे भेटैत छैक । चूँकि एहि क्षेत्र के ई विशिष्ट मेवा फल जीवन के अति विशिष्ट तत्व के पूर्ण करय वला फलक उपज अधिक होइत अछि, संगहि वर्षा ऋतु के कुप्रभाव सँ मानव जीवन मे अनेकानेक रोग के संचार होइत छैक जाहि बहुत रोगक निवारण के क्षमता मखान मे छैक । मखान सुपाच्य मेवा अछि तथा एकर सेवन अपच, कम भूख, पेटक अन्य गड़बड़ी, शक्‍ति के संचार मे अत्यन्त लाभदाई अछि । मखान के घी मे भूजि कय भूजाक रुप मे एवं एकर खीर बना कय खयला सँ शरीरक संतुलित अहार के कमी तत्व के पूरा करैत अछि । एकर सेवन, आशिन आ कार्तिक मास मे अति लाभदाई छैक, तै समाजक लोक के स्वास्थ्य के मंगल मामना करैत एहि पावनि मे मखान बाँटय के प्रथा प्रचलित भेल अछि । पान सुपारी मिथिलाक सम्मान मे अति विशिष्ट स्थान प्राप्त कयने अछि , तै पान सुपारी दय समाजक सम्मान कयल जाइत अछि । तदुपरान्त राति भरि जागरण करवा हेतु पचीसी खेल, नाच गान के आयोजन कयल जाइत अछि । एहि तरहे राति भरि चहल पहल मे वीति जाईत अछि । एना जागरण मे महत्व गौण अछि, तै एकर प्रधानता कम आंकल जाईत अछि मुदा एहि रातुक जागरण लक्ष्मी प्राप्ति मे सिद्धि दाई अछि । एहि पावनि के महत्व दिनानुदिन मिथिला मे घटल जाईत अछि, मुदा एकर रश्य अदायगी अवश्य होईत अछि ।

ग्राम - माँड़रि 

पो.- जितवारपुर, जिला- मधुबनी             



पावनि-तिहार         लोक पावनि चौरचन           प्रो. पवन कुमार मिश्र 

समस्त विज्ञजन केँ विदित अछि जे समग्र विश्‍व मे भारत ज्ञान विज्ञान सँ महान तथा जगत्‌ गुरु कऽ उपाधि सँ मण्डित अछि । एतवे टा नहि भारत पूर्व काल मे "सोनाक चिड़िया" मानल जाइत छल एवं ब्रह्माण्डक परम शक्‍ति छल । भूलोकक कोन कथा अन्तरिक्ष लोक मे एतौका राजा शान्ति स्थापित करऽ लेल अपन भुज शक्‍तिक उपयोग करैत छलाह । एकर साक्ष्य अपन पौराणिक कथा ऐतिह्‌य प्रमाणक रुप मे स्थापित अछि ।

हमर पूर्वज जे आई ऋषि महर्षि नाम सँ जानल जायत छथि हुनक अनुसंधानपरक वेदान्त (उपनिषद्‍) एखनो अकाट्‍य अछि । हुनक कहब छनि काल (समय) एक अछि, अखण्ड अछि, व्यापक (सब ठाम व्याप्त) अछि । महाकवि कालिदास अभिज्ञान शकुन्तलाक मंगलाचरण मे "ये द्वे कालं विधतः" एहि वाक्य द्वारा ऋषि मत केँ स्थापित करैत छथि । जकर भाव अछि व्यवहारिक जगत्‌ मे समयक विभाग सूर्य आओर चन्द्रमा सँ होइछ ।

‘प्रश्नोपनिषद्‍’ मे ऋषिक मतानुसार परम सूक्ष्म तत्त्व "आत्मा" सूर्य छथि तथा सूक्ष्म गन्धादि स्थूल पृथ्वी आदि प्रकृति चन्द्र छथि । एहि दूनूक संयोग सँ जड़ चेतन केँ उत्पत्ति पालन आओर संहार होइछ । 

आत्यिमिक बौद्धिक उन्‍नति हेतु सूर्यक उपासना कैल जाइछ । जाहि सँ ज्ञान प्राप्त होइछ । ज्ञान छोट ओ पैघ नहि होइछ अपितु सब काल मे समान रहैछ एवं सतत ओ पूर्णताक बोध करवैछ । मुक्‍तिक साधन ज्ञान, आओर मुक्‍त पुरुष केँ साध्यो ज्ञाने अछि । सूर्य सदा सर्वदा एक समान रहैछ । ठीक एकरे विपरीत चन्द्र घटैत बढ़ैत रहैछ । ओ एक कलाक वृद्धि करैत शुक्ल पक्ष मे पूर्ण आओर एक-एक कलाक ह्रास करैत कृष्ण पक्ष मे विलीन भऽ जाय्त छाथि । सम्पत्सर रुप (समय) जे परमेश्‍वर जिनक प्रकृति रुप जे प्रतीक चन्द्र हुनक शुक्ल पक्ष रुप जे विभाग ओ प्राण कहवैछ प्राणक अर्थ भोक्‍ता । कृष्ण पक्ष भोग्य (क्षरण शील वस्तु) ।

विश्‍वक समस्त ज्योतिषी लोकनि जातकक जन्मपत्री मे सूर्य आओर चन्द्र केँ वलावल केँ अनुसार जातक केर आत्मबल तथा धनधान्य समृद्धिक विचार करैत छथिन्ह । वैज्ञानिक लोकनि अपना शोध मे पओलैन जे चन्द्रमाक पूर्णता आओर ह्रास्क प्रभाव विक्षिप्त (पागल) क विशिष्टता पर पड़ैछ । भारतीय दार्शनिक मनीषी "कोकं कस्त्वं कुत आयातः, का मे जनजी को तात:" अर्थात्‌ हम के छी, अहाँ के छी हमर माता के छथि तथा हमर पिता के छथि इत्यादि प्रश्नक उत्तर मे प्रत्यक्ष सूर्य के पिता (पुरुष) आओर चन्द्रमा के माता (स्त्री) क कल्पना कऽ अनवस्था दोष सं बचैत छथि । 

अपना देश मे खास कऽ हिन्दू समाज मे जे अवतारवादक कल्पना अछि ताहि मे सूर्य आओर चन्द्रक पूर्णावतार मे वर्णन व्यास्क पिता महर्षि पराशर अपन प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘वृद्ध पराशर’ मे करैत छथि । "रामोऽवतारः सूर्यस्य चन्द्रस्य यदुनायकः" सृ. क्र. २६ अर्थात्‌ सूर्य राम रुप मे आओर चन्द्र कृष्ण रुप मे अवतार ग्रहण केलन्हि ।

ई दुनू युग पुरुष भारतीय संस्कृति-सभ्यता, आचार-विचार तथा जीवन दर्शनक मेरुद्ण्ड छथि आदर्श छथि । पौराणिक ग्रन्थ तथा काव्य ग्रन्थ केँ मान्य नायक छथि । कवि, कोविद, आलोचक, सभ्य विद्धत्‌ समाजक आदर्श छथि । सामान्यजन हुनका चरित केँ अपना जीवन मे उतारि ऐहिक जीवन के सुखी कऽ परलोक केँ सुन्दर बनाबऽ लेल प्रयत्‍नशील होईत छथि ।

एहि संसार मे दू प्रकारक मनुष्य वास करै छथि । एकटा प्रवृत्ति मार्गी (प्रेय मार्गी)- गृहस्थ दोसर निवृत्ति मार्गी योगी, सन्यासी । प्रवृत्ति मार्गी-गृहस्थ काञ्चन काया कामिनी चन्द्रमुखी प्रिया धर्मपत्‍नी सँ घर मे स्वर्ग सुख सँ उत्तम सुखक अनुभव करै छथि । ओहि मे कतहु बाधा होइत छनि तँ नरको सँ बदतर दुःख केँ अनुभव करै छथि ।

कर्मवादक सिद्धान्तक अनुसार सुख-दुःख सुकर्मक फल अछि ई भारतीय कर्मवादक सिद्धान्त विश्‍वक विद्धान स्वीकार करैत छथि । तकरा सँ छुटकाराक उपाय पूर्वज ऋषि-मुनि सुकर्म (पूजा-पाठ) भक्‍ति आओर ज्ञान सँ सम्वलित भऽ कऽ तदनुसार आचरणक आदेश करैत छथिन्ह ।

हम जे काज नहि केलहुँ ओकरो लेल यदि समाज हमरा दोष दिए, प्रत्यक्ष वा परोक्ष मे हमर निन्दा करय एहि दोष "लोक लाक्षना" क निवारण हेतु भादो शुक्ल पक्षक चतुर्थी चन्द्र के आओर ओहि काल मे गणेशक पूजाक उपदेश अछि । 

हिन्दू समाज मे श्री कृष्ण पूर्णावतार परम ब्रह्म परमेश्‍वर मानल छथि । महर्षि पराशर हुनका चन्द्रसँ अवतीर्ण मानैत छथिन्ह । हुनके सँ सम्बन्धित स्कन्दपुराण मे चन्द्रोपाख्यान शीर्षक सँ कथा वर्णित अछि जे निम्नलिखित अछि ।

नन्दिकेश्‍वर सनत्कुमार सँ कहैत छथिन्ह हे सनत कुमार ! यदि अहाँ अपन शुभक कामना करैत छी तऽ एकाग्रचित सँ चन्द्रोपाख्यान सुनू । पुरुष होथि वा नारी ओ भाद्र शुक्ल चतुर्थीक चन्द्र पूजा करथि । ताहि सँ हुनका मिथ्या कलंक तथा सब प्रकार केँ विघ्नक नाश हेतैन्ह । सनत्कुमार पुछलिन्ह हे ऋषिवर ! ई व्रत कोना पृथ्वी पर आएल से कहु । नन्दकेश्‍वर बजलाह-ई व्रत सर्व प्रथम जगत केर नाथ श्री कृष्ण पृथ्वी पर कैलाह । सनत्कुमार केँ आश्‍चर्य भेलैन्ह षड गुण ऐश्‍वर्य सं सम्पन्‍न सोलहो कला सँ पूर, सृष्टिक कर्त्ता धर्त्ता, ओ केना लोकनिन्दाक पात्र भेलाह । नन्दीकेश्‍वर कहैत छथिन्ह-हे सनत्कुमार । बलराम आओर कृष्ण वसुदेव क पुत्र भऽ पृथ्वी पर वास केलाह । ओ जरासन्धक भय सँ द्वारिका गेलाह ओतऽ विश्‍वकर्मा द्वारा अपन स्त्रीक लेल सोलह हजार तथा यादव सब केँ लेल छप्पन करोड़ घर केँ निर्माण कऽ वास केलाह । ओहि द्वारिका मे उग्र नाम केर यादव केँ दूटा बेटा छलैन्ह सतजित आओर प्रसेन । सतजित समुद्र तट पर जा अनन्य भक्‍ति सँ सूर्यक घोर तपस्या कऽ हुनका प्रसन्‍न केलाह । प्रसन्‍न सूर्य प्रगट भऽ वरदान माँगूऽ कहलथिन्ह सतजित हुनका सँ स्यमन्तक मणिक याचना कयलन्हि । सूर्य मणि दैत कहलथिन्ह हे सतजित ! एकरा पवित्रता पूर्वक धारण करव, अन्यथा अनिष्ट होएत । सतजित ओ मणि लऽ नगर मे प्रवेश करैत विचारऽ लगलाह ई मणि देखि कृष्ण मांगि नहि लेथि । ओ ई मणि अपन भाई प्रसेन के देलथिन्ह । एक दिन प्रंसेन श्री कृष्ण के संग शिकार खेलऽ लेल जंगल गेलाह । जंगल मे ओ पछुआ गेलाह । सिंह हुनका मारि मणि लऽ क चलल तऽ ओकरा जाम्बवान्‌ भालू मारि देलथिन्ह । जाम्बवान्‌ ओ लऽ अपना वील मे प्रवेश कऽ खेलऽ लेल अपना पुत्र केऽ देलथिन्ह । 

एम्हर कृष्ण अपना संगी साथीक संग द्वारिका ऐलाह । ओहि समूहक लोक सब प्रसेन केँ नहि देखि बाजय लगलाह जे ई पापी कृष्ण मणिक लोभ सँ प्रसेन केँ मारि देलाह । एहि मिथ्या कलंक सँ कृष्ण व्यथित भऽ चुप्पहि प्रसेनक खोज मे जंगल गेलाह । ओतऽ देखलाह प्रदेन मरल छथि । आगू गेलाह तऽ देखलाह एकटा सिंह मरल अछि आगू गेलाह उत्तर एकटा वील देखलाह । ओहि वील मे प्रवेश केलाह । ओ वील अन्धकारमय छलैक । ओकर दूरी १०० योजन यानि ४०० मील छल । कृष्ण अपना तेज सँ अन्धकार के नाश कऽ जखन अंतिम स्थान पर पहुँचलाह तऽ देखैत छथि खूब मजबूत नीक खूब सुन्दर भवन अछि । ओहि मे खूब सुन्दर पालना पर एकटा बच्चा के दायि झुला रहल छैक बच्चा क आँखिक सामने ओ मणि लटकल छैक दायि गवैत छैक-

सिंहः प्रसेन भयधीत, सिंहो जाम्बवता हतः ।

सुकुमारक ! मा रोदीहि, तब ह्‌येषः स्यमन्तकः ॥

अर्थात्‌ सिंह प्रसेन केँ मारलाह, सिंह जाम्बवान्‌ सँ मारल गेल, ओ बौआ ! जूनि कानू अहींक ई स्यमन्तक मणि अछि । तखनेहि एक अपूर्व सुन्दरी विधाताक अनुपम सृष्टि युवती ओतऽ ऐलीह । ओ कृष्ण केँ देखि काम-ज्वर सँ व्याकुल भऽ गेलीह । ओ बजलीह-हे कमल नेत्र ! ई मणि अहाँ लियऽ आओर तुरत भागि जाउ । जा धरि हमर पिता जाम्बवान्‌ सुतल छथि । श्री कृष्ण प्रसन्‍न भऽ शंख बजा देलथिन्ह । जाम्बवान्‌ उठैत्मात्र युद्ध कर लगलाह । हुनका दुनुक भयंकर बाहु युद्ध २१ दिन तक चलैत रहलन्हि । एम्हर द्वारिका वासी सात दिन धरि कृष्णक प्रतीक्षा कऽ हुनक प्रेतक्रिया सेहो देलथिन्ह । बाइसम दिन जाम्बवान्‌ ई निश्‍चित कऽ कि ई मानव नहि भऽ सकैत छथि । ई अवश्य परमेश्‍वर छथि । ओ युद्ध छोरि हुनक प्रार्थना केलथिन्ह अ अपन कन्या जाम्बवती के अर्पण कऽ देलथिन्ह । भगवान श्री कृश्न मणि लऽ कऽ जाम्ब्वतीक स्म्ग सभा भवन मे आइव जनताक समक्ष सत्जीत के सादर समर्पित कैलाह । सतजीत प्रसन्‍न भऽ अपन पुत्री सत्यभामा कृष्ण केँ सेवा लेल अर्पण कऽ देलथिन्ह । 

किछुए दिन मे दुरात्मा शतधन्बा नामक एकटा यादव सत्ताजित केँ मारि ओ मणि लऽ लेलक । सत्यभामा सँ ई समाचार सूनि कृष्ण बलराम केँ कहलथिन्ह-हे भ्राता श्री ! ई मणि हमर योग्य अछि । एकर शतधन्वान लेऽ लेलक । ओकरा पकरु । शतधन्वा ई सूनि ओ मणि अक्रूर कें दऽ देलथिन्ह आओर रथ पर चढ़ि दक्षिण दिशा मे भऽ गेलाह । कृष्ण-बलराम १०० योजन धरि ओकर पांछा मारलाह । ओकरा संग मे मणि नहि देखि बलराम कृष्ण केँ फटकारऽ लगलाह, "हे कपटी कृष्ण ! अहाँ लोभी छी ।" कृष्ण केँ लाखों शपथ खेलोपरान्त ओ शान्त नहि भेलाह तथा विदर्भ देश चलि गेलाह । कृष्ण धूरि केँ जहन द्वारिका एलाह तँ लोक सभ फेर कलंक देबऽ लगलैन्ह । ई कृष्ण मणिक लोभ सँ बलराम एहन शुद्ध भाय के फेज छल द्वारिका सँ बाहर कऽ देलाह । अहि मिथ्या कलंक सँ कृष्ण संतप्त रहऽ लगलाह । अहि बीच नारद (ओहि समयक पत्रकार) त्रिभुवन मे घुमैत कृष्ण सँ मिलक लेल ऐलथिन्ह । चिन्तातुर उदास कृष्ण केँ देखि पुछथिन्ह "हे देवेश ! किएक उदास छी ?" कृष्ण कहलथिन्ह, " हे नारद ! हम वेरि वेरि मिथ्यापवाद सँ पीड़ित भऽ रहल छी ।" नारद कहलथिन्ह, "हे देवेश ! अहाँ निश्‍चिते भादो मासक शुक्ल चतुर्थीक चन्द्र देखने होएव तेँ अपने केँ बेरिबेरि मिथ्या कलंक लगैछ । श्री कृष्ण नारद सँ पूछलथिन्ह, "चन्द्र दर्शन सँ किएक ई दोष लगै छैक ।
नारद जी कहलथिन्ह, "जे अति प्राचीन काल मे चन्द्रमा गणेश जी सँ अभिशप्त भेलाह, अहाँक जे देखताह हुनको मिथ्या कलंक लगतैन्ह । कृष्ण पूछलथिन्ह, "हे मुनिवर ! गणेश जी किऐक चन्द्रमा केँ शाप देलथिन्ह ।" नारद जी कहलथिन्ह, "हे यदुनन्दन ! एक वेरि ब्रह्मा, विष्णु आओर महेश पत्नीक रुप मे अष्ट सिद्धि आओर नवनिधि के गनेश कें अर्पण कऽ प्रार्थना केयथिन्ह । गनेश प्रसन्न भऽ हुनका तीनू कें सृजन, पालन आओर संहार कार्य निर्विघ्न करु ई आशीर्वाद देलथिन्ह । ताहि काल मे सत्य लोक सँ चन्द्रमा धीरे-धीरे नीचाँ आबि अपन सौन्द्र्य मद सँ चूर भऽ गजवदन कें उपहाल केयथिन्ह । गणेश क्रुद्ध भऽ हुनका शाप देलथिन्ह, - "हे चन्द्र ! अहाँ अपन सुन्दरता सँ नितरा रहल छी । आई सँ जे अहाँ केँ देखताह, हुनका मिथ्या कलंक लगतैन्ह । चन्द्रमा कठोर शाप सँ मलीन भऽ जल मे प्रवेश कऽ गेलाह । देवता लोकनि मे हाहाकार भऽ गेल । ओ सब ब्रह्माक पास गेलथिन्ह । ब्रह्मा कहलथिन्ह अहाँ सब गणेशेक जा केँ विनति करु, उएह उपय वतौताह । सव देवता पूछलन्हि-गणेशक दर्शन कोना होयत । ब्रह्मा वजलाह चतुर्थी तिथि केँ गणेश जी के पूजा करु । सब देवता चन्द्रमा सँ कहलथिन्ह । चन्द्रमा चतुर्थीक गणेश पुजा केलाह । गणेश वाल रुप मे प्रकट भऽ दर्शन देलथिन्ह आओर कहलथिन्ह - चन्द्रमा हम प्रसन्‍न छी वरदान माँगू । चन्द्रमा प्रणाम करैत कहलथिन्ह हे सिद्धि विनायक हम शाप मुक्‍त होई, पाप मुक्‍त होई, सभ हमर दर्शन करैथ । गनेश थ बहलाघ हमर शाप व्यर्थ नहि जायत किन्तु शुक्ल पक्ष मे प्रथम उदित अहाँक दर्शन आओर नमन शुभकर रहत तथा भादोक शुक्ल पक्ष मे चतुर्थीक जे अहाँक दर्शन करताह हुनका लोक लान्छना लगतैह । किन्तु यदि ओ सिंहः प्रसेन भवधीत इत्यादि मन्त्र केँ पढ़ि दर्शन करताह तथा हमर पूजा करताह हुनका ओ दोष नहि लगतैन्ह । श्री कृष्ण नारद सँ प्रेरित भऽ एहिव्रतकेँ अनुष्ठान केलाह । तहन ओ लोक कलंक सँ मुक्‍त भेलाह । 

एहि चौठ तिथि आओर चौठ चन्द्र केँ जनमानस पर एहन प्रभाव पड़ल जे आइयो लोक चौठ तिथि केँ किछु नहि करऽ चाहैत छथि । कवि समाजो अपना काव्य मे चौठक चन्द्रमा नीक रुप मे वर्णन नहि करैत छथि । कवि शिरोमणि तुलसी मानसक सुन्दर काण्ड मे मन्दोदरी-रावण संवाद मे मन्दोदरीक मुख सँ अपन उदगार व्यक्‍त करैत छथि - "तजऊ चौथि के चन्द कि नाई" हे रावण । अहाँ सीता केँ चौठक चन्द्र जकाँ त्याग कऽ दियहु । नहि तो लोक निंदा करवैत अहाँक नाश कऽ देतीह ।

एतऽ ध्यान देवऽक बात इ अछि जे जाहि चन्द्र केँ हम सब आकाश मे घटैत बढ़ैत देखति छी ओ पुरुष रुप मे एक उत्तम दर्शन भाव लेने अछि । जे एहि लेखक विषय नहि अछि । हमर ऋषि मुनि आओर सभ्य समाजक ई ध्येय अछि, मानव जीवन सुखमय हो आओर हर्ष उल्लास मे हुनक जीवन व्यतीत होन्हि । एहि हेतु अनेक लोक पावनि अपनौलन्हि, जाहि मे आवाल वृद्ध प्रसन्‍न भवऽ केँ परिवार समाज राष्ट्र आओर विश्‍व एक आनन्द रुपी सूत्र मे पीरो अब फल जेकाँ रहथि । 

आवास - आदर्श नगर, समस्तीपुर

सभार : मिथिला अरिपन 

विध-विधान                             रवि व्रत                       नीतू 

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वृश्‍चिक संक्रान्ति भेलापर शुक्लपक्षक अन्तिम रवि दिन में ई व्रत टेकल जाइत अछि आ मेष संक्रांतिमें शुक्ल पक्षकरविके ई व्रत सौंपल जाइत अछि । एहिमें एकसंझाक विधान अछि । मिथिलामे ई व्रत विशेष प्रचलित अछि । एहि व्रतक समाप्ति बैशाख शुक्ल पक्ष में कलेमास भेलहुं पर करबाक विधान अछि । वृषक संक्रांतिमें सौंपब वर्जित अछि । दोसर बैसाखमें वृषक संक्रांतिक संभावना रहैत छैक । 

एहिमे भोरे स्नान क पूजा कथा होइत अछि । एक टा घर गोबरसं नीपि ओहिमे अष्टदल अरिपन पिठारसं बना ओहि पर सिन्दुर लगा ताहि पर एकटा लोटामे सिन्दुर, पिठार लगा क जल भरल राखि देल जाइछ । डोराके कलशमे लपेटि देल जाइछ । कलश पर एकटा जरैत दीप राखि देल जाइछ जे यावत कथा होइत रहै ता जरैत रहैक । पांच गोट डांट वला पान, पांचटा सुपारी, पांचटा गुआ, एकहथ्था केरा अघौंती ठकुआ, बताशा, नारियल, पांच रंगक फल ई सब ल पोखरिमे जा अर्घ दैत छथि । तहन पवनैतिन कथा सुनलाक बाद डोरा बन्हैत छथि । ओहि दिन एकसंझा करैत छथि । दोसर रबिमे नोन नहि खाइत छथि वा जेहन कबुला रहैत छनि तदनुसार करैत छथि । तामाक अर्घीमे गाइक दूध, लाल फूल, चानन, दूबि अक्षत ल सूर्य भगवानके अर्घ देल जाइछ । 

ई कथा दू तरहक होइछ एकटा जे रबि दिन क कहल जाइछ दोसर जे रबिक अतिरिक्‍त दिन कहल जाइछ । 


दिनकर कथा


रवि दिनकर कथा (बड़की कथा)

चिन्ता-चिन्ता काकि चिन्ता करैत छी । श्री सूर्यक चिन्ता करैत छी । ओहि चिन्तासं कि होइछ । धन होइ, पूत होइ, आ धर्म होइ । एकटा एकरंग नामक ब्राह्मण छलाह । ओ सोनार देशक रहय वला छलाह । ओ एक गाम मांगथि तैयो हुनका एक तामा होइन आ दूइयो गाम मांगथि त एके तामा होइन । ओही ल क ओ अपन परिवारक पालन-पोषण करैत छलाह । एक समयमे ब्राह्मणी ब्राह्मणके कहलखिन जे हे ब्राह्मण दूनू बेटी के जंगलमे दय अबियौ कारण खर्चा जुटाओल पार नहि लगैत अछि ।

ब्राह्मण कहि बैसलखिन जे दुःपापी । बारीक साग आ चार परहक कुम्हरस दुनू बेटी के पालन करू । मगर ब्राह्मणीक जिद्‍दक आगू किछु नहि चललनि । ब्राह्मण करता कि अहगर क चानन केलनि आ दिगर क ठोप केलनि । हाथ मे खन्ती लय दुनू कन्या के लय जंगल बिदा भ गेलाह । बोनसं वनसन्तो बहार भेलखिन ब्राह्मण दुनू कन्या हुनके सुनझा देलखिन । 

ओहि ठामस ब्राह्मण बेटी के छोरि विदा भ गेलाह । नर्मदा कातमे आई-माई कहिनी सुनैत छलीह डोरा बन्हैत छलीह । ओ सोचलनि जे निचा धरब त चुट्‍टी पिपरी खा जायत । आ ऊपर धरब त चील लय जायत । एहिसं अगर एहि ब्राह्मण के दय देबनि तं बर फल हैत । 

हे ब्राह्मण अहां यदि अपना ब्राह्मणी आगू एकवर बाजब त तकर न वर भय जायत । ओहि ठामसं ब्राह्मण अपन घर घुमि अयलाह । हुनका मोनमे भेलनि जे ओ सब जे आशिर्वाद देलक से ठीक कि गलत तकर जांच करय लेल बैसलाह । ओ अपन ब्राह्मणी के कहलखिन जे हे ब्राह्मणी कनझोरबा कहां अछि लाउ त । ओहिठाम सोन-सवर्ण, टाका-पैसाक कमी नहि रहलनि । तहन ब्राह्मणी-ब्राह्मणसं पूछलखिन-हे ब्राह्मण ! आहा कतहु चोरि चमारि तने कयलहु अछि । नहि श्री सूर्य महाराज के कहानी सूनलौ ताहिसं ई सब भेल अछि । 

ब्राह्मण जे अपन दुनू कन्याके जंगलमे राखि एलखिन एकगोट वनकटैया लकरहारा रखने छलनि ओ जखन एक वर लकड़ी कटैत अछि त ओ न गुना भ जाइत छलैक । कठैया ओहि दुनू बहिन पर एतेक प्रसन्‍न भेल जे जाय राजा के कहलकिन जेहन रानीक स्वरूप छनि ताःइस बढ़ियां ओहि दूनू कन्याक कनगुरिया आंगुर छनि । से सुनि राजा घोड़ा पर चढ़ि जंगल विदा भ गेलाह । कहथा नामक दोस्त के सेहो संग क लेलथिन । 

लकड़कट्‍टा ओहिठाम पहुंचलाक बाद राजा ओहि दुनू कन्यासं प्रश्न केलनि जे अहां लोकनि के छी । दैतीन आ कि भूतीन । ओ लोकनि कहलनि जे ने हम दैतीन छी ने भूतीन । हमरा लोकनि एकहरे ब्राह्मणक कन्या थिकहुं । हमरा लोकनिक पालन-पोषणमे पिता नहि सकलाह । जाहि कारणें ओ हमरा लोकनि के जंगलमे बैसाय गेलाह अछि । 

तहन राजा विचार कयल जे जेठ कन्यासं हम स्वयं विवाह कय ली आ दोसर कन्यासं महथाक विवाह करा दियैक । से कय दुनू गोटे घर घुमलाह तथा चारू मिली सांसारिक सुखक भोग करय लगलाह । 

एक दिन ब्राह्मणी-ब्राह्मणसं कहैत छथिन जे आब जौं बेटी जमाय होइत तं कतेक आनन्द होइत । ब्राह्मण कहलखिन जे दुर-दुर पापी ताहि दिन कहलियौ जे बारीक साग आ चारक कुम्हरसं दुनू कन्याक पालन करक हेतु से त’ बात हमर नहि मानलैं, आब त’ ओकरा सबके चोर-चण्डाल ल गेल हेतौक । 

ब्राह्मणीक दबाव पर पुनः ब्राह्मण अहगर कय ठोप चानन क हाथमे पोथी कखितर खंती ले जंगल विदा भेलाह । एक वन गेलाह, दोसर वन गेलाह त’ ओहिमेसं वनसपतो बहार भ ब्राह्मणसं पूछल, हे ब्राह्मण ! आहांक कि हेरा गेल अछि ? ब्राह्मण जवाब देलनि किछु हेरायल नहि अछि हम अपन धिया दूनू के जंगल में बैसा गेलियनि हुनकहि उद्‍देश्यमे अयलहुं । वनसपतो प्रश्न केलनि-जे तोरा धियाक पता देतह तकरा तों कि देबहक ? जोर भरि धोती आर उजानपुर राज दए देबैक । 

वनसपातो कहलखिन जे आहांक एक कन्यासं राजा विवाह क ल गेलाह । आ दोसरके हुनक मित्र महथा वियाहि लय गेल छथि । 

ओहिठामसं ब्राह्मण राजाक ओहिठाम विदा भेलाह । जहन किछु दूर गेलाह त एकटा पनिहारीन के पानि भरैत देखि प्रश्न केलथिन जे ककर पोखरि के पनिहारिन । राजाक पोखरि छनि हम हुनक पनिहारिन चेरी छियनि । पनिहारिन जबाब देलकनि । पनिहारिन के ब्राह्मण कहलथिन जे रानी के कहियौन जाय जे अहांक पिता आयल छथि । कत दल, नहि दल, वैह मोरा बाप थिकाह । उठू बाबू स्नान करू आ बिगजी पान करू । बाप कहलखिन जे जकर देल अहांक घर-बर अछि से छवो खण्ड सम्पूर्ण कहानी जा नहि सूनब ता कोनो चीज ग्रहण नहि करब । 

ब्राह्मण अपन जेठ कन्यास कहलखिन जे अहूं कहानी सूनू आ डोरा बान्हू । ताहि पर रानी कहलखिन थापरसं मारितहुं हेलीसं मरबितहुं कुकुरसं कटबितहुं । गामक बाहर गरहत्था दितहुं । हमरा सोन रूप पहिरबाक ठाम नहि । आ लाल ताग, पियर ताग कतय बान्हब । बापक मोनमें बहुत तकलीफ भेलनि । ओ बनिया दुकान पर जाय उपासले रहि गेलाह । प्रातः काल उठ बनिया मो कहानी कान सून ।ताहि पर ओ कहलखिन कि हम अहांक कहानी गोसाई मान सूनब । बारह बरख ल क कोठा सोफा सब खसि परल । बिक्री-बट्‍टा किछु नहि रहि गेल अछि । छः दुबि अक्षत बनियां हाथ क देल आ छः दूबि अक्षत अपना हाथ क लेल । बनियां के कथा सुनैत सोनाक कोठा, रूपाक तराजू, गिर छुटलैक हीरा भ गेलैक । छप्पनो प्रकारक वस्तु सभक बिक्री होबय लगलैक । 

बनियां ब्राह्मणक पैर पर खसि परल जे अहां व्रत कहलहुं आब व्रत विधान कहू । अगहन मास इजोरिया पक्षमे सनिक सांझ रबिक मांझ दूर सं नीपब आ दूरसं चांछब । गायक गोबर आ गंगाक माटिसं नीपब । एक सेर मैदाक तेरह टा लड्‍डू बनायब । एकटा ओहिमे सं ब्राह्मण के एकटा कन्या कुमारि के दय देबैक । आ तहन कहानी सुनब । ओहिठामसं एकर बाद ब्राह्मण विदा भ गेलाह । 

किछु दूर एलाक बाद कोढ़िया एकआ कतहु पड़ल छल । ओकरा लग आबि ब्राह्मण कहलखिन जे उठ-उठ कोढ़िया हमर कहानी कान सुन । कि गोसाई अहांक कहानी सूने । बारह बरख ल क हमर शरीर गलि-गलि खसल जाइत अछि । मुंह में नाक गलि गेल । सुरति बिगरी गेल आब कहीं कहू जे अहांक कहानी कोना सूनू । ई सूनि क ब्राह्मण छः दू अक्षत कोढ़ियाक हाथ दय छः दू अक्षत अपना हाथ लेल । आधा कहानी सुनैत ओकर शरीर फूल सन फूला गेलैक । ओ ब्राह्मण पैर पर खसि परल आ कहलक जे व्रत कहलहुं आब व्रतक विधान कहू ।

ब्राह्मण कहय लगलखिन अगहन मास इजोरिया पक्षमे सनीक सांझ रबिक मांझम दूर क चांछि गायक गोबर, आ गंगाक माटिसं दूर क नीपि देबै । एक सेर मैदान १३ लड्‌डू बनायब । एकटा ब्राह्मणके द देबेनि, एकटा कन्या कुमारिके । तहन कहानी सुनब ।

ओहि ठामसं पुनः ब्राह्मण विदा भेलाह । आगू गेलाक बाद एकटा पीपरक गाछ भेटलनि ओकरा कहलखिन जे उठू पीपर हमर कहानी सूनू । कि अहांक कहानी सूनब? बारह बरखसं तरम सीर नहि अछि । ऊपर पल्लव नहि अछि । चिड़ैयो बास नहि करैत अछि । बसात सेहो नहि लगैत अछि । ब्राह्मण पहिनहि जेकां छः दू अक्षत अपना हाथ लेल आ छः दू पिपरक हाथ देल । कहानी सुनैत पिपर के तरमे सोर भेल, ऊपर पल्लव भेल । मोन भरि छांह भेल, रुख बसात भेल, चिरै बास करय लागल । पीपर पुनः ब्राह्मण के पूछल कहूं गोसाइं व्रत कहलहुं आब व्रतक विधान कहू ।

अगहन मास इजोरिया पक्ष सनिक सांझ आ रबिक मांझमे दूरसं चांछब, गायक गोबर आ गंगा माटिसं नीपि एक सेर मैदान १३ टा लड्‌डू बनायब । जाहि में सं एक ब्राह्मण के देबिन आ एक टा कुमारि कन्या के तहन कहानी सुनब ।

ओहिठामसं ब्राह्मण विदा भेलाह हरवाहक ओहिठाम पहुंचलाह ओकरा कहलखिन जे उठ हरबहबा मोर कहिनी कान सून । कि अहांक कहानी गोसांई सुनब हरखरा टूटि गेल फार हेरा गल । वरद दूनू वनस्त्र चल गेल । ब्राह्मण छः दू अक्षत अपना हाथ लेल आ छः दू अक्षत हरबहबाक हाथ देल । कहानी कहय लगलखीन । आधा कहानी सुनैत सोनाक हर भेले आ रुपाक फार भेलै पूरा कहिनी सुनैत दू । बरद बढ़ियां जका बहए लगलैक । हिरामोती उपजय लगलै । हरवाह ताहि पर पण्डीजी के पैर पकरि लेलकनि कहय लगलनि जे व्रत कहलहुं आब व्रतक विधान कहू ।

अगहन-मास इजोरियाक पक्षमे सनिक सांझ आ रबिक मांझ दूरसं चाछि दूरसं नीपि गायक गोबर आ गंगाक माटिसं नीपि एक सेर मैदाक तेरह टा लड्‌डू बनायब । ओहिमेसं एकटा ब्राह्‌मणके आ एकटा कन्या कुमारि के दय दैबैक आ कहानी सुनब ।

ओहिठामसं ब्राह्मन किछु दूर आगू गेलाह त देखलखिन जे पोखरिसं पनिहारिन पानि भरने जा रहल रछि । ओकरा सं प्रश्न केलखिन ब्राह्मण जे ककर पोखिरि के पनिहारीन । पनिहारीन कहलकनि- महथा पोखरि चेरी पनिहारिन । कहियहुन महथिन के जे अहांक बाप पाहुन आयल छथि । महथिन आबि पैर हाथ धोआय घर लय गेलखिन । भनसिया के बजाय कहलखिन जे हमर पिताजी पाहनु अयलाह अछि । तैं छप्पन प्रकारक भानस करु । 

पुनः पिता के आबि कहलखिन जे उठू बाबू जलपान करु । ब्राह्मण कहलखिन जे एक बेटी देलीह से कुकुरसं कटौलनि, हेलीसं मरबौलनि गामक बाहर गरहत्था देलनि एहिठाम जं हमर गप्पक व्यवस्था भ सकत त रहब नहि तहन उपास करब । ओ त महाराजक पत्‍नी छथि आ हम त रैयत छी । कहानी सूनब मनकामना करब । दू दिन चारि दिन बाबू अहां रहू । दू चारि दिन ओ ओहि ठाम रुकि गेलाह । महथिन माय लेल गहना गुरिया आ पटोर देलखिन ।

महादाई नामक जे जेठ कन्या रहथिन हुनकर बालक खेला क एलखित खाय लेल मगलखिन । त ओ जबाब देलखिन जे जाहि दिनसं नाना भिखरिया बाप आयल सुख सब लय गेल दुख सब दय गेल । ओहि बालक के पठेलखिन जेबौआ मौसीक भेंट कए आऊ अहां ! खुआ पिया क मुहमे पान देलखिन । बौआ हाथी हथिसार देखू ग । घोड़ा-घोड़सार देखु ग । आ मौसीसं भेंट कय आऊ ग । मुहक पान फेकि देलखिन आ घोड़ाक दाना बिछि खाय लगलाह । सलखी कहलखीन जे यै महत्मानि जे बहियो सूद्र नहि करैत अछि से पूत बहिनौत करैत अछि । 

लाला बड़ा पूत थिक, बड़ा नाति थिक । चारसं कुम्हर भड़ारसं धान लाऊ । कहलखिन जे बौआ ततेक दैत छियौक जे बाढ़िबिआहिहैं, कुआं खुनबिहैं । बैसले खैहैं । ओहिठामसं विदा भ गेलाह । सूर्य महाराज के अनरगल लगलन्हि । रे छौड़ा ककर धान ककरा लेल लय जाइत छैं । मौसीक धान माय लेल लय जाइत छी । अनकर धान खेथुन गर्भवती होइथुन । धान छुटि भण्डार लागि गेल । कुम्हर छुटि चार चढ़ि गेल । 

ओहिठामसं माय लग एलाह त बेटाके खाली देखि बहिन के गारि देबय लगलथिन तहन बेटा मना केलकनि जे हमरा मौसी के गारि जुनि दहिक । हमर मौसी त ततेक धान देने छल जे की की ने करितहुं । मगर आहां त श्री सूर्य महाराजक कहिनी के निन्दा कैलहुं बाप के उपास पारलहु तकर ई सब फल थिक । 

आइ-माइ के कहय गेलखिन जे आइ कोखियोक जनमल निन्दा करैत अछि । करबह कि मैल चेथरिया उज्जर कै ले । धानक खोज करह ग ।

ओहि ठामसं विदा भय महथीनक ओहि ठाम पहुंचलीह । बहीन अरीछ-परीछ क घर लय गेलानि । भनसीया के बजाय कहलथीन हमर बहीन पाहुन आयल अछि छप्पन प्रकारक भोजन बनाऊ । जहन भोजन करय लगलीह त बहिन पूछलथिन जे कहह बहिनो भोजनक स्वाद । जे हमर गुरा-खुद्‌दीक स्वाद से तोहर पकवानोक स्वाद नहि छह ।

प्रातः काल छागर मरबौलनि अपने हाथ भानस केलनि । सोन थार बहिनके देल । रुपाकथार अपने लेलनि । कहह बहिन भोजनक स्वाद । आनो दिनसं बेकार लागल । तों त श्री सूर्य महाराजक कहिनी दूसलह तकर सबटा फल छियह । अगहन मास पटबाकें हकार देलखिन । दूनू बहिनी कहिनी सुनैत छथि । बहिन बहैत छथिन पकरि-छकरि क जी मूह लैछह । नहि तोहर भल करैत छी । आ अप्पन भल करैत छी । दीनकर महाराजक काण फाटि गेल जे हमरा भक्‍तिसं के वन टकने जाइत अछि । सूर्य महाराज भिखारीक रुप धा महथिन के कहलथिन्ह महधिन हमरा भीख दिय । चेरी हाथ लिय । चेरी हाथे नहि लेब’। हम त जाबत छबो खण्ड सम्पूर्णो कहिनी नहि सूनब कोनो काज नहि करब । तै कोरपूत मरि जाय, धी मोर, हेरा जाय, भंडार घरमे अगराही लागि जाय हम उठि नहि सकैत छी । कानी सुनि सम्पन्‍न कैलनि । आंचर खोलि भरार घर पैसि गेलीह । साठिक चाउर एक सूप लेलनि । आगूसं भीख देलखिन पाछूसं गोर लगलखिन । सूर्य महाराज ताहि पर कहलखिन मांगू की वरदान मंगै छी । हम अहांके ठकलहुं । हमरा आहां ठकलहुं । हमरा पर प्रसन्‍न भेलहुं आब हमरा बहिन पर प्रसन्‍न होइयन्हु ।

सुतल राजा स्वप्न देखैत छथि-“अछि महादाई अछि राज । नहि महादाई नहि राज । सीपाही पठेलथिन जै कही महथाके जे बारह वर्षक कुम्मरि देबक हेतु महथिन कहय गेलखिन महथा के उठू महथा विगजी पान करू हमरा त रचबा उमतायल अछि बारह बरखक कुम्मरि मंगैत अछि । हमरे बहिन हमरे बहिनीत हमरे राजसं खाइत अछि बड़ा खुश भेलथिन्ह । धन-धन महथीन रूसल बौंस देल फाटल सिब देल । 

कहलखिन जे देख त चेरी-बेटी गामक बाहर के अछि भूखल । एक बहूरो ओ अछि भूखल । उठ बहुरी मोर कहिनी कान सून । कि महत्मानि कि हम अहां कहिनी कान सूनब । छबो बेटा चानन लादय गेल अछि से सब नहि लौटल अछि । बुढ़बा उतर सीरमे सुतल अछि से नहि जील

अछि । छोटकी पुतहु वेदने अकुलायल अछि । दू अक्षत बहुरी हाथ देल । छः दू अक्षत अपना हाथ लेल । बहुरी के आधा कहानी सुनैत छबो बेटा आबि गेलैक । सोंसे सुनैत बुढ़बा राम-राम क उठलैक आ छोटकी पुतहु सोनाक नारे रूपाक मौरे बेटाक जन्म देलकै । 

सराइमे चानन लेलक पनबट्‍टामे पान । राज दरबारमे गबैत अछि आ नचैत अछि । दुर पापी तों त श्री सूर्य महाराजक कहानी सुनलह अछि ताहिसं सब किछु भेलौक अछि । 

एक दिन नदीमे एक बूढ़ि निरधीन भेल अछि तकरा देखि रानी छः दू अक्षत बूढ़ीक हाथ देल छः दू अक्षत अपना हाथ लेल । बूढ़ी कथा सुनैत देरी बारह बरखक कुम्मरि भ गेलीह । 

चिन्ता-चिन्ता कथीक चिन्ता श्री सूर्यक चिन्ता करैत छी । से चिन्ता केने कि होइ, धन होइ, धर्म होइ, पूत होइ, आरी-बारी दंग कियारी तहां ठाढ़ि भेली कन्या कुमारी । कन्या कुमारी की मांगब हुकरैत गाय मांगै चुकरैत महिस मांगू । साईंक जांघ मांगू । मुठी भर जौर मांगू । एकहरे ब्राह्मण छलाह गुआ बाड़ी क यात्र कयलनि । जेठी जनी कहलखिन छोटी जनी के जे भेंट करू ग । ओएह नहान ओएह स्नान दस मासक कूल कन्या रहि गेल । बारह बरखे ब्राह्मण घुरि क अयलाह पानक पनवट्‍टा हाथ क देल जे बेटी बापक भेंट करू ग । बाप नीचासं ऊपर तकैत छथीन जे ई बेटी हमरा कोना भेल । गुआ बारी भेंट केलौं ताहिसं ई भेल । अपन चेरी झारू दैत हेतै ताहि घर क कन्याके देब । अपन गुआर दूध दैत हेतैक ताहि घर क कन्या के दैब । अपन भालि फूल देतैक ताहि घर क कन्या के देब । 

अपन बाभन वरदक तुल छी । अपन कन्या अपने घर बियाहब याने बाभनसं बियाहब । जेठी जनी कहलखिन छोटी जनीकें जे तोहर बेटी संकटमे परि गेलखुन । काचे दूधार बारब चाउर बेटी ककरा अर्धा दैत छी चैता सूर्यके की मंगैत छी । हलधर भैया चकरधर शोभित स्वामी जगत जीतयबाला पण्डित । पर घर मारे धी, अपन घर मारे पुतहु । दही, मही, ओगर छागर श्यामा दाई भनसिया सुपरना दाई परसनाहरि । सोलह सौ तपस्वी पान भात खाइत अछि आशक नगर, प्यासक नगर, भूखक नगर्म निन्‍नक नगर, चल-चल जाइत छथि । पुता हे निर्णय क दिय । हम कि निर्णय क देब । हम त सतमायक कारण बापक निकालल दुःखछल जाइत छी हम कि निर्णय चुकायब । 

खाट पर सूती तैयो निम्न हुअय, निचामे सुती तैयो निन्‍न हुअय । गंगाजल पीबी तैयो पियास जाय । डबराक पानि पीबि तैयो पियास जाय । खैर गुरा जाई तैयो भूख मेटाय आ पांच पकवान खाई तैयो भूख मेटाय । रानी कहलखिन राजाके जे एतनी टा बच्चा ठकने जाइत अछि । स्वर्गे जाइत अछि । स्वर्गे मोती अरिपन परि गेल । ब्रह्मा-विष्णु वेद पढ़ि गेलाह, आमक पाते कंगन बनि गेल । बेटवा-बेटी कोबराक पान-भात खाइत अछि सुख सं रहैत अछि । किछु दिन बाद बेटी बाजय माय जायब सासुर । बेटा बाजय हम नैहर जायब । 

ल द नैहर बिदा होइत छथि । आशा माइ बोट पर बैसलै छथिन । चिन्हलह त भले-भल नहि त नाना भिखरिया कय देब । बेटबा सिखायल-बेटियाके जिनका हम गोर लगबैन हुनका अहूं गोर लागब । हाथ धय नमरल तहन माथा धय आशा माई आशीष देलखिन । ओ कहलखिन आहां कहां देशपती राजा आ हम कहां बुढ़िया भिखारि । अहां आशा माय थिकौं । अहां आश पुराओल । दुर्जन नबाबक बेटीसं बियाह कराओल । 

ओहिठामसं दूनू गोटे बिदा भय गेलाह । गंगामे नाव नहि बेढ़ नहि कोना पार उतरब । चारसं कुम्हर भरारसं धान लेल सब किछु गंगामे भसा देलथिन । सोनाक जिंजीर खरखरा देलखिन दूनू बेकती पार भय गेलाह । निन्दलनि आ दुसलनि तहन अवगति भेलन्हि । सुनलनि, सिखलनि सद्‍गति भेलनि । दूनू बेकती पार भय गेलाह । 

गाम अयलाह माय पुछलखिन बाबू कि बियाहल किछु नहि देलक । सब किछु देलक । हमरे कारण सब दुरि गेल । प्रातः काल गादी के हमार भेल । जतेक अलंकरण छलनि सब भेटि गेलनि । ओढ़ि-पहिरि सासुके गोर लागय गेलीह । सासु कहलखिन हे बाबू कोना साहु घर बनेलौं कोन सोना घर गढ़ेलहुं । ने साहु घर बनेलौं, ने सोनरा घर बढ़ेलहुं हुनका माय-सतमायके छनि संकष्ट मंगला प्रसन्‍न छथिन ताहिसं भेटलनि अछि । कहू बहुरिया एहन व्रत जनैत हमरा नहि कहलौं । दूनू सासु पुतहु कहानी सुनैत छथि मनकामना करैत छथि बाबू के राज हो‍उन्ह, भरार हो‍उन्ह, सम्पूर्णो विद्या हो‍उन्ह । पुतहु मनोकामना करैत छथिन सिर भरि सिन्दूर थन भरि दूध, कोर भरि पूत, जे क्यों सुनय तकरा सब पर प्रसन्‍न । चैता सूर्य गेलाह कैलाश । जेहने माई धी प्रसन्‍न तेहने रौता-रौतनियां के प्रसन्‍न । छुटल-फुटल पुत्र कल्याण जहां सुमरी तहां सहाय । 

अशामाइक कहानी

(दिनकरक सुनलाक बाद प्रतिदिन)

हरदी मुरिये दुभी छुटि गेल । तै लेल रौता मारि पीटि गेलाह । द इ यै चेथरी गोनरी कहांसं लायब । पाटि पटोर मधुनारायण किसमिस तेला भय गेल । दाइ पेट हरहर गुरगुर करैत अछि । घरे खाधि खुनलनि आ अढ़ाय झांक झकलनि सोनाक डीह अमार लागि गेल । गोबर मरौनी गेल कैलाश भरल चास, कहती सुनती पुरत आश । विटिया उठि परत बास । छुटल-फुटल भोर भतान, पुत्र कल्याण । 

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विध-विधान                            भाइक पूजाक पर्व भ्रातृद्वितीया 

भारतीय संस्कृति में पर्वक परम्परा कालान्तर सँ प्रतीक रुप में दृष्टि गोचर होइत अछि । आवश्यक संस्कार वा लौकिक व्यवहार एक पीढ़ी सँ दोसर पीढ़ी धरि अग्रसारित करब संस्कृति पर्वक परम उद्देश्य अछि । पर्वक स्वरुप वा मनएवाक विधान आवश्यकता, सम्बन्ध, रक्षा आ कर्तव्य आदिक दिग्दर्शक अछि ।

सभ पावनि-तिहार में भ्रातृद्वितीया भाइ बहिनक आस्था, रक्षा आ शुभ कामनाक पर्व अछि । ई पर्व कार्तिक शुक्‍ल द्वितीया कऽमनाओल जाइत अछि । एहि दिन भाइ द्वारा बहिनक आतिथ्य स्वीकार कएल जाइत अछि आ बहिन के द्वारा भाइक पूजा कएल जाइत अछि । भाइ छोट रहथु वा पैध हुनक पूजा बहिन अरिपन (यन्त्रक प्रतीक) पर आसन दए यमुनाक प्रतीक मङ्गल सूचक पिठार, सिन्दूर, श्रीखण्ड चानन लगाए कुमहरक फूल, लवङ्ग, अड़ाँची, पान, सुपारी आ जल हुनका हाथ में दऽ नोत दैत भाई जे दीर्घायु के कामना करैत-’जमुना नोतलैन्ह जम के हम नौत‍इ छी भाई के जँ जँ जमुना क जल बढ़े, त्यों त्यों भाइक आयु बढ़े ।’ कहि कऽ नौत देत छथिन्ह । भाइ बहिन कें यथा शक्‍ति उपहार दैत छथि आ हुनक अन्‍न खाए हुनका संतुष्ट करैत छथि । एहि दिन बहिनक घरमें भोजन करबाक विशेष महत्व अछि । ई विधि पौराणिक थिक जे भ्रातृद्वितीया के नाम सँ प्रसिद्ध अछि । तदनुसार यमराज अपन बहिन यमुना कें भ्रातृद्वितीया के दिन भोजन करए वाला भाई के यमयातना सँ मुक्‍तिक वरदान देने छथिन्ह । 

पौराणिक कथाख अनुसार सूर्यक पत्‍नीक नाम छाया छन्हि । तैं छायाक संग प्रकाशक अभित्न सम्बन्ध सर्वथा उपमान रूपे लोक व्यवहार में चर्चित अछि । छायाककोखि सँ एकपुत्र यमराज आ एक पुत्री यमुना के जन्म भेलैन्ह । दुनू भाइ बहिन में परम स्नेह छलन्हि । समयान्तर में यमराज अपना कार्य मे अत्यन्त व्यस्त भऽ गेलाह आ सतत्‌ अपना भाइ के द्वारा अपना धरक आतिथ्य स्वीकार करबाक यमुनाक ईच्छा पूर्ण करबाक हेतु एकबेर कार्तिक शुक्ल द्वितीया कऽ यमराज हुनका घर अएलाह । अपन भाइ यमराज के अपना घर मे आएल देखि यमुना अत्यन्त हर्षित भेली । अपन भाई यमराज कें आसन, पाद्य, अर्ध्य आचमनि आदि सँ स्वागत सत्कार कए स्नान करबाक आग्रह कएलनि । यमुना मे स्नान कएला सँ यमराजक मनआ आत्मा पवित्र एवं निर्मल भऽ गेलनि । पवित्र मन सँ अपना बहिन के प्रसन्‍न करबाक हेतु नरक मे यमयातना सँ त्रस्त पापकर्मक भोग-भोगि रहल अनेक जीव के मुक्‍त कए देलनि । भाइक एहि सुन्दर कृत्य सँ प्रसन्‍न भए यमुना हुनका पिठार सिन्दुर लगाए पान, सुपारी, कुमहरक फूल, लवङ्ग, अड़ाँची आदि युक्‍त जल सँ संकल्प पूर्वक हस्तप्रच्छालन करैत नोत देलखिन्ह । बहिनक नोत के स्वीकार करैत यमराज हुनका घरमे भोजन केलनि । भोजनक अनन्तर बहिन के मनोवांक्षित उपहार मंगवाक आग्रह कएलनि । अवसर पावि यमुना एहि दिन प्रतिवर्ष अपना घर आएबाक प्रतिज्ञाक संग एहि अवसर पर बहिनक घर मे भोजन करए बला भाई के यमयातना सँ मुक्‍तिक वचन लेलनि । प्रस्तुत कथाक अनुसार भ्रातृद्वितीया कऽ यमराज प्रतिवर्ष अपना बहिनक घर अवैत छथि आ यमुना मे स्नान करैत छथि । तैं एहि दिन यमुना मे स्नानक अत्यन्त महत्व अछि । भाइ बहिनक ई पावनि यद्यपि सम्पूर्ण भारत वर्ष मे मनाओल जाइत अछि मुदा मिथिला मे पूर्ण श्रद्धा आ आस्था सँ एहि पर्व के मनाओल जाइत अछि । 

विध-विधानn                  ॥एकादशी महात्म्य॥ 

१. उत्पन्‍ना एकादशी 
२. मोक्षदा एकादशी
३. सफला एकादशी 
४. पुत्रदा एकादशी 
५. षट्‌तिला एकादशी
६. जया एकादशी 
७. विजया एकादशी 
८. आमला एकादशी
९. पापमोचनी एकादशी
१०. कामदा एकादशी
११. बरूथनी एकादशी
१२. मोहनी एकादशी
१३. अपरा एकादशी 
१४. निर्जला एकादशी
१५. योगिनी एकादशी
१६. पदमा हरि शयनी एकादशी
१७. कामिका एकादशी
१८. पुत्रदा एकादशी
१९. अजा एकादशी 
२०. पार्श्‍व परिवर्तनी एकादशी
२१. इन्दिरा एकादशी
२२. पापांकुशा एकादशी
२३. रमा एकादशी 
२४. देवोत्थान एकादशी
२५. पद्‍मिनी एकादशी
२६. परमा एकादशी


(१) ॥ मार्गशीर्ष कृष्ण उत्पन्‍ना एकादशी महात्म्य ॥
भगवान श्री कृष्ण द्वारा युधिष्ठिर के सुनाओल गेल उत्पन्‍न एकादशीक प्रादुर्भाव के विषय मे । 

सतयुग मे एक महाभयंकर मुर नामक राक्षस प्रकट भेल । ओ अपन शक्‍ति सँ सब देवता केँ पराजित कऽ अमरावती पुरी पर राज्य करय लागल । देवता सभ पराजित भय मृत्युलोक मे आबि पहाड़क गुफा मे वास करय लगला । एक समय देवता सभ मिलि कय कैलाशपतिकऽ शरण मे जाय अपन दुःखक कथा सुनौलथिन । भगवान शंकर जी विष्णु के शरण मे जाय कहलथिन ।

आज्ञा पाबि सब देवता लोकनि क्षीर सागर मे जाय वेद मन्त्र द्वारा स्तुति कय भगवान विष्णु के प्रसन्‍न कयलनि तथा इन्द्र प्रार्थना कऽ कऽ कहय लगलथिन । एक नाड़ा जग नामक दैत्य ब्रह्मवंश सँ चन्द्रावती नगरी मे उत्पन्‍न भेल । तकर पुत्रक नाम मुर अछि । ओ सव देवता केँ पराजित कऽ देव लोक मे राज्य कऽ रहल अछि, आ हम सभ मृत्युलोक मे आबि पहाड़क गुफा मे शरण लेने छी, अतः अपने एहि बलशाली राक्षस केँ मारि कऽ हमरा सभ केँ दुःख दूर करू ।

भगवान कहलथिन्ह - हम अहाँक शत्रु केँ शीघ्र संहार करब । अहाँ सभ निश्‍चिन्त भऽ कऽ चन्द्रावती पर चढ़ाई करू, हम अहाँ सभ केँ सहायता के लेल बाद मे आबि रहल छी । आज्ञा मानि देवता लोकनि युद्ध भूमि मे तैयार भऽ आबि गेलाह । परन्तु ओ सभ युद्ध मे मुर राक्षस के सामने परास्त होबय लगलाह । तखन भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र के कहलथिन्ह अहाँ राक्षस सभ के संहार करू । चक्र सभ राक्षस केँ संहार कय देलक । मात्र मुर राक्षस बाँचि गेल ।

भगवान विष्णु सारंग धनुष हाथ मे लऽ पुनः मुर राक्षस के साथ युद्ध करय लगलाह । हुनक सभ प्रयास विफल भय गेल । हजारों वर्ष तक ओ युद्ध भूमि मे युद्ध कयलाक बाद हारिकय विश्रामकरबाक इच्छा सँ युद्ध भूमि सँ भागिकय बद्रिकाश्रम के एक गुफा मे आबि कय सूति रहलाह । मुर राक्षस हुनका पीछा करैत ओहि स्थान पर आबि गेल जतय भगवान सुतल छलाह । मुर राक्षस हुनका सुतल देखि हुनका मारबाक प्रयास कयल । परन्तु भगवानक शरीर सँ एक सुन्दर कन्या उत्पन्‍न भेलनि । ओ कन्या राक्षस सँ युद्ध करय लगलीह और राक्षस केँ अस्त्र, शस्त्र, रथ के काटि शिर के काटि रणभूमि मे राखि देलनि । ओकर सेना सब पाताल मे भागि गेल ।

भगवान के जगला बाद ओ कन्या कहलथिन्ह कि इ राक्षस अहाँक मारय लेल आयल छल, हम अहाँक शरीर सँ उत्पन्‍न भय ई राक्षस मारलहुँ अछि । भगवान कहलथिन्ह अहाँ सब देवताक रक्षा केलहुँ आ हम खुश छी अहाँ वरदान माँगू । 

भगवान कहलथिन्ह अहाँ एकादशी तिथि केँ उत्पन्‍न भेलहुँ अतः अहाँक नाम एकादशी देवी भेल । जे कियो एकादशीक व्रत करत, भक्‍ति आ श्रद्धा सँ करत ओ परम धामक प्राप्त करत ई कहि भगवान्‌ अन्तर्ध्यान भय गेलाह । इति ।

 

(२) ॥ अग्रहण मार्गशीर्ष शुक्ला मोक्षदा एकादशी ॥
मोक्षदा एकादशीक व्रत कथा:- प्राचीन समय मे गोकुल नगर मे वैखानस नामक राजा धर्मात्मा और भक्‍त छलथि । ओ रात्रि मे स्वप्न मे अपन पिता के नरकक भोग भोगैत देखलथि । भोर मे ज्योतिषी, पंडित ओ वेद पाठि के बजाय पुछलखिन जे हमर पिता केँ नरक सँ उद्धार कोना होयतनि ? ब्राह्मण सभ कहलथिन्ह :- एहिठाम समीप मे पर्वत ऋषिक आश्रम अछि । हुनका शरण मे गेला पर अहाँक पिताक उद्धार शीघ्र भऽ जायत ।

राजा पर्वत मुनिकेँ आश्रम मे जाय प्रणाम कऽ कहलखिन हम रात्रि मे स्वप्न मे अपन पिता के देखलहुँ जे ओ यमदूत द्वारा बहुत यातना सहि रहल छथि । अतः हुनक उद्धार कोना होय से योगबल द्वारा अपने कहल जाय ? मुनि बहुत सोचि विचारि कहलथिन्ह:- धर्म कर्म सब देर सऽ फल देवय वला होईत अछि । आशुतोष शंकर केँ प्रसन्‍न करय मे सेहो समय लागत ताहि हेतु सब सँ सुगम और शीघ्र फल देवय वला मोक्षदा एकादशी अछि । अतः सपरिवार विधि सहित इ मोक्षदा एकादशी कऽ कऽ पिता के फल अर्पित कऽ देला सँ एहि के प्रभाव सँ स्वर्गक प्राप्ति भेलनि । 

 

(३) ॥ पौष कृष्ण सफला एकादशी ॥
पौष मास के कृष्ण पक्षक एकादशी के नाम सफला एकादशी थिक । एहि एकादशी मे ऋतु के अनुसार फल-फूल, धूप, दीप सँ श्री नारायण के पूजा कऽ महात्म्यक कथा सूनी । 

चम्पावती नगरी मे महिष्यमान नामक राजा राज्य करैत छलाह । हुनका चारिटा पुत्र छलनि । ज्येष्ठ पुत्रक नाम लुम्वक छलनि । ओ बड़ दुराचारी, मांस, मदिरा, परस्त्री गमन, वेश्यागामी छलाह । एक समय पिता पुत्र के दुराचारी प्रवृत्ति देखि घर सँ बाहर निकालि देलथिन ओ घर सँ बाहर भऽ जंगल मे एक पीपड़ के गाछ तर अपन समय बितावय लगला । जाहि पीपर गाछ तर ओ रहथि ओ स्थान देवता लोकनि केँ क्रीड़ास्थल छलनि । राति मे ओ अपना राज्यमे जाय राति कऽ चोरि करय चलि जाथि । परन्तु राजक सिपाहि पकड़ि कऽ छोड़ि दैन्ह ।

एक दिन पौष मासक कृष्ण पक्षक दशमी तिथि केँ राज्य मे लूटपाट तथा अत्याचार कयलनि । राजक सिपाही हुनका पकड़ि कय देह पर सँ कपड़ा उतारि लेलकनि । तखन ओ पुनः ओहि पीपर के गाछ तर आबि गेलाह । सुबह मे ठंढा वसात लगला सँ देह मे पीड़ा होबय लगलन्हि । सुबह सूर्योदय भेला पर दर्द सँ किछु शक्‍ति भेलनि, परन्तु भूख सँ व्याकुल भऽ जंगल सँ फल बीछि कय आनि पीपर गाछक जरि मे राखि भगवान सँ प्रार्थना करय लगलाह हे भगवान ! अहाँ ई फल भोग लगाउ नहि तँ हम बिना अन्‍न पानि के रहि शरीर के त्याग कऽ देब एवं एहि तरहें राति भरि भजन कीर्तन करय लागल । परन्तु भगवान फल भोग नहि कयलनि ।

प्रातः काल एक सुन्दर घोड़ा अकाश मार्ग सँ एहिठाम आयल। तखन भगवान आकाशवाणी द्वारा कहलथिन्ह, हे राजपुत्र अहाँ अनजान मे एकादशी व्रत कयलहुँ । ई व्रत सफला एकादशी थिक । अतः अहाँक मनोरथ सफल भेल । अहाँ एहि घोड़ा पर चढ़ि कऽ अपन राज्य पिता लग जाउ । प्रभु के आज्ञा पाबि लुम्बक पिता के लग गेलाह । पिता अपन राज्य पुत्र के दय वन मे तपस्या लेल चलि गेलाह । ताहि समय सँ राजा अपना राज्य मे प्रजा सभ केँ विधि विधान के संग सफला एकादशी व्रत करबाक आदेश दय सुख पूर्वक प्रजा सहित राजसुख करय लगलाह ।

 

(४)॥ पौष शुक्ल पुत्रदा एकादशी ॥
पौष शुक्ल पुत्रदा एकादशीक व्रत कथा :- एक समय भद्रावती नगरी मे एक साकेता मन राजा राज्य करैत छलाह । हुनक स्त्रीकेँ नाम शैव्या छलनि । राज्य सब तरहें सुख-समृद्धि पूर्ण छल, परन्तु राजा के पुत्र नहि भेलनि ताहि सँ ओ बहुत दुःखी रहैत छलाह । ओ पुत्रेष्टि यज्ञ हजारों कयलनि परन्तु यज्ञ सफल नहि भऽ सकलनि । देवता पितर के खूब अराधना कयलनि तथापि किछु नहि होईत देखि राजा आत्महत्या के विचार सेहो करय लगलाह परन्तु पुनः मन मे भेलनि आत्महत्या महापाप थिक । एहि चिन्ता सँ मुक्‍ति लेल बनवास जायके लेल प्रस्थान कयलनि । 

राजा घोड़ा पर सवार भऽ मनक शान्ति लेल जंगल मे घुमय लगलाह । वन मे पशु, पक्षी केँ अपना सन्तानक संग खेलाइत देखि ओ कहथि जे हमरा सँ शौभाग्यशाली ई जीव जन्तु अछि जे अपना संतान के संग आमोद-प्रमोद सँ रहि रहल अछि । 

वन मे आगा गेलाक बाद एक सुन्दर सरोवर भेटलनि । ओहि के चारूकात मुनि केँ आश्रम छलनि । राजा घोड़ा सँ उतरि कऽ मुनि केँ आश्रम मे जाय प्रणाम कय पुछलखिन्ह अहाँ के छी ?

मुनि कहलथिन्ह हम विश्‍व के देवता छी । एहि सरोवर के पतित पावनि बुझि कऽ स्नान करय लेल आयल छी । आइ पुत्रदा एकादशी अछि जे ई पुत्रक इच्छा पूर्ण करैत छथि । राजा कहलथिन्ह-ई सुन्दर फल हमरा प्राप्त भऽ सकत? विश्‍व देव कहलथिन्ह हमर बात सत्य होयत । परीक्षा कय कऽ देखू ।

राजा श्रद्धा सँ पुत्रदा एकादशी व्रत एवं रात्रि जागरण कय प्रातः राजमहल के प्रस्थान कयलनि । नौ मास के बाद हुनका एक सुन्दर पुत्र उत्पन्‍न भेलनि । राजा के धैर्य भेलनि । पितर लोकनि प्रसन्‍न भेलाह । इति ।

  

(५) ॥माघ कृष्ण षट्‌तिला एकादशी ॥

माघ कृष्ण एकादशी केँ नाम षट्‌तिला एकादशी कहल गेल अछि । एहिमे (१) तिल सँ स्नान, तिल सँ उपटन, तिल सँ हवन, तिलांजली (तिल सहित भगवान के चरणोदक), तिलक भोजन, तिलदान विहित अछि । 

एहि षट्‌तिला एकादशी व्रत के महात्म्य पुलस्य ऋषि दालम्य कहने रहथिन । एक ब्राह्मणी छलीह ओ चन्द्रायण व्रत करैत रहैथ । वो व्रत करैत बड़ दुर्बल भऽ गेली । हुनका व्रतक प्रभाव सँ सब पाप नष्ट भऽ गेलनि । मुनि विचार कयलनि जे ओ मरणासन्‍न भऽ गेलीह । ओ स्वर्गक प्राप्ति अवश्य करती, परन्तु दान किछु नहि कयने छथि अतः खाली हाथ आबय परतनि । अतः मन मे विचार कऽ वैकुण्ठ सँ वामन रूप धारण कय मृत्युलोक मे आबि ब्राह्मणी के द्वारि पर आबि भिक्षाक याचना कयलनि । ओ ब्राह्मण के भिक्षा मे मृत्युपिण्ड दान कयलनि । किछु दिनक बाद हुनकर मृत्यु भऽ गेलनि । व्रतक प्रभाव सँ ओ स्वर्ग गेलि परन्तु ओतय ओ अपना घर मे मृत्युपिण्ड के अलावा किछु नहि देखि ओ सोचलनि जे आरायण के प्रभाव सँ स्वर्गक प्राप्ति भेल और हाथ सँ जे दान केने छी सेहो भेट गेल ।

ब्राह्मणी कहलथिन इ दरिद्रता कोना समाप्त होयत । तखन देवता कहलथिन्ह अहाँ के देवांगना सब देखय आयति । अहाँ दरवाजा बन्द कऽ लेब आ कहबनि जे पहिले हमरा षट्‌तिला एकादशी के व्रत कह । देवांगना सब के अयला पर ब्राह्मणी सएह केलनि । एहि पर देवांगना कहलथिन्ह ई षट्‌तिला एकादशी बिगड़ल भाग्य के सँवारय वला व्रत अछि आ ओकर माहात्म्य सुनाबय लगलीह । एहिव्रत के महात्म्य सुनि मृत्युपिण्ड आम बनि गेलनि । व्रत कयलाक प्रभाव सँ घर धनधान्य सँ परिपूर्ण भऽ गेल । इति ।

(६) ॥ माघशुक्ल जया एकादशी महात्म्य ॥
माघ मासक शुक्ल पक्षक एकादशी के नाम जया एकादशी थिक एहिके महात्म्य पद्‍म पुराण सँ लेल गेल अछि ।

एक समय स्वर्गपुरी इन्द्रक सभा मे गन्धर्व गान एवं अप्सरा नाच करैत छलीह । ओहि सभा मे पुष्पवती नामक गन्धर्वक स्त्री और माल्यवान नामक मालिन के पुत्र रहैथ । ई दुनू आपस मे प्रेमजाल मे फसि गेल छलाह । एहि तरहें इन्द्र दुनू के पथभ्रष्ट देखि श्राप दय राक्षस योनि मे स्वर्ग सँ मृत्युलोक मे भेज देलखिन । ओ दुनू स्वर्गारोहण मार्ग द्वारा बद्रीनाथ आबि गेला । ओ दुनू एहि स्थान पर एला पर पापक उद्धार हेतु ओहि तपोभूमि पर रहय लगलाह । मृत्यु भुवनक कष्ट देखि जीवन सँ उदास भय अन्‍न-पानि त्यागि दिन-राति बद्रीनाथक गुण गान करैत रात्रि जागरण कयलनि । प्रातः काल हुनका सभ के राक्षस योनि सँ मुक्‍ति भेटलनि और स्वर्ग सँ विमान आबि दुनू के विमान पर चढ़ाकय स्वर्ग लोकक प्रस्थान कयलनि । जाहि दिन ओ दुनू दिन रात्रि उपवास रहलाह ओहि दिन जया एकादशी छलैक । एहि एकादशीक प्रभाव सँ स्वर्ग धाम के प्राप्त कयलनि । इति ।

 

(७) ॥ फाल्गुन कृष्ण विजया एकादशी महात्म्य ॥
फाल्गुन मासक कृष्ण पक्षक एकादशीक नाम विजया एकादशी थिक । मर्यादा पुरुषोत्तम राम एहि व्रतक प्रभाव सँ लंका पर विजय प्राप्त कयलनि ।

जखन भगवान राम वानर सेना के संग समुद्र तट पर जाय ओतय रुकि गेलाह, ओतय एक दाम्पत्य मुनि के आश्रम छलनि, ओहि आश्रम पर अनेकों ब्रह्मा दृष्टि छलनि । एहन चिरंजीव मुनि के दर्शनार्थ सेना सहित राम लक्ष्मण जी गेला । मुनि केँ शरण मे जाय दण्डवत प्रणाम कऽ समुद्र के पार भऽ लंका जाय के उपाय पुछलथिन्ह । मुनि कहलथिन्ह-काल्हि विजया एकादशी थिक । अहाँ समस्त सेना के संग एहि व्रत के करू । ताहि सँ समुद्र के पार कऽ लंका पर विजय प्राप्त करब सुगम भऽ जायत । मुनिकेँ आज्ञा पाबि राम लक्ष्मण सेना सहित विजया एकादशी व्रत कय लंका पर विजय प्राप्त कयलनि । इति ।

 

(८) ॥ फाल्गुन शुक्ल एकादशी महात्म्य ॥ (आमला)

फाल्गुन मासक शुक्ल पक्षक एकादशी के नाम आमल की थिक । एक समय वशिष्ठ मुनि मान्धाता राजा सँ एहि व्रत के महात्म्य पुछलखिन्ह ।

वैश्य नामक नगरी मे चन्द्रवंशी राजा चैत्ररथ नामक राजा राज्य करैत छलाह । वो राजा बड़ धर्मात्मा तथा प्रजा सभ वैष्णव छलनि, ओहि राज्य मे बच्चा सँ लऽ कऽ बुढ़ तक सब एकादशीक व्रत करैत छलाह । एक समय फाल्गुन मासक शुक्ल पक्षक एकादशी छल, सकल नगर निवासी व्रत, रात्रि जागरण कयलनि । एहि समय एक बहेलिया घर सँ रुसिकय ओहि मन्दिर के एक कोन मे जाय कऽ बैसि रहल । ओहि स्थान पर ओ विष्णु भगवानक कथा आ एकादशी व्रतकऽ -महात्म्य सुनि रात्रि जागरण कऽ सवेरे घरक लेल विदा भेलाह । घर पर पहुँचलाक बाद ओहि बहेलिया के मृत्यु भऽ गेलनि । आमला एकादशी के व्रत के प्रभाव सँ हुनक जन्म राजा विदूरथ के घर भेलनि । हुनक नाम वसूरत रहनि । 

एक दिन राजा जंगल मे घुमय लेल गेला । हुनका दिशाक ज्ञान नहि रहलनि । ओ अपना के पागल बुझि एक पेड़ के निचा मे सुति रहलाह । ओहि दिन ओ राजा अमिला एकादशीक व्रत कयने छलाह ओ भगवान के ध्यान कऽ सुतल छलाह । ओहि समय जंगल मे मलेच्छ राजा के असगर देखि मारय के लेल आयल । आमला एकादशी कऽ प्रभाव सँ हुनका शरीर सँ एक कन्याक उत्पन्‍न भेलनि । वो कालिका के सदृश्य शीघ्र राक्षसके मारि अन्तर्ध्यान भऽ गेलीह । राजा जगलाक बाद राक्षस केँ मरल देखि आश्‍चर्य चकित भऽ मन मे सोचय लगलाह जे हमर रक्षा के कयलथि, एहि पर आकाशबाणी भेलनि - आमला एकादशीक प्रभाव सँ अहाँक विष्णु भगवान रक्षा कयलनि अछि ।

(९) ॥ चैत्र कृष्ण पक्षक पाप मोचनी एकादशीक महात्म्य ॥

चैत्र मासक कृष्ण पक्षक एकादशीक नाम पाप मोचिनी एकादशी कहल जाईत अछि ।

एक चित्ररथ नामक सुन्दर वन छल । ओ देवराज इन्द्रक क्रीड़ा स्थल छल । ओहि वन मे मधावि नामक मुनी तपस्या करैत छलाह । वो शंकर के भक्‍त छलाह । शंकर के सेवक सँ कामदेव के शत्रुता छलनि । एक समय कामदेव अपन सम्मोहन, सन्तापन इत्यादि पाँचो वाण लय मुनिपर वार कय देलनि । मंजूषा नामक अप्सरा द्वारा मुनि सम्मोहित भय भगवान शंकरक ध्यान सँ विचलित भऽ गेलाह आ ओकरा ओहि मन्दिर केँ स्वामी बना देलखिन । एहि तरहें रास विलास करैत १८ वर्ष समय व्यतीत भऽ गेलनि । तखन अप्सरा स्वर्ग पुनः वापस जाय के लेल मुनि सँ आज्ञा मंगलखिन । 

एहिपर मुनि कहलखिन-आई पहिल दिन अछि काल्हि चलि जायब । ताहि पर ओ पंचांग देखाय कहलखिन हमरा एहिठाम १८ वर्ष भऽ चुकल अछि । मुनि इ बात बुझला पर क्रोधित भऽ श्राप दऽ देलथिन जे अहाँ पिशाचनि भऽ जाउ । एहि पर अप्सरा विनयपूर्वक हुनका सँ कहलखिन एकर उद्धार हमरा कोना होयत ? मुनि कहलखिन-पापमोचनी एकादशी व्रत कयला सँ अहाँके पुनः दिव्य शरीर भऽ जायत । मुनि अपन पिता च्यवन मुनि के ओहिठाम जाय पाप सँ उद्धार के लेल पुछलखिन, पिता हुनको पापमोचनी एकादशी व्रत करय के आज्ञा देलखिन । एहि व्रत के प्रभाव सँ ओ तथा मंजूषा पाप सँ मुक्‍त भऽ गेलथि । 

 

(१०) ॥ चैत्र शुदि कामदा एकादशी व्रत महात्म्य ॥
भगवान कृष्ण कहलखिन युधिष्ठिर सँ चैत्र मासक शुक्ल पक्षक एकादशी के नाम कामदा एकादशी थिक । एहि के महात्म्य वशिष्ट जी राजा दिलीप के प्रश्न के उत्तर मे कहलखिन ।

वशिष्टजी कहलखिन- भोगीपुर नगरमे पुण्डरीक नामक एक राजा राज्य करैत छलाह । हुनक सभा मे गन्धर्व गीत गबैत आ अप्सरा नाच करैत छल । ओहि सभा मे ललिता नामक गन्धर्वनी एवं गन्धर्व उपस्थित छल । ओहि दुनू मे प्रेम भय गेल रहैन्ह । ललिता के सामने देखि गन्धर्व गाना अशुद्ध गाबय लागल । राजा के एहि पर क्रोध भय गेलनि वो ललिता के बजाकय कहलखिन - अहाँ हमरा सभा मे स्त्री के स्मृति मे अशुद्ध गायन कयलहुँ अछि एहिसँ अहाँकेँ श्राप दैत छी जे अहाँ राक्षस भय जाउ और अपन कर्मक फल भोग करू । राजाक श्राप सँ ललित के मुख विकराल भय गेलनि, भोजन प्राप्त करब ई मुस्किल भय गेलनि । हुनक स्त्री पति के इ स्थिति देखि हुनका साथे वन मे घुमय लगलीह । ओहि जंगलमे श्रृंगी ऋषिक आश्रम छल, ललिता मुनि के शरण मे जाय पति केँ उद्धारक लेल उपाय पुछलखिन । 

मुनि कहलखिन- कामदा एकादशीक व्रत विधान सँ कय ओहि के फल पति के अर्पण कय देब तँ अवश्य स्वर्गक प्राप्ति भय जयतैन्ह । अतः ललिता कामदा एकादशीक व्रत एवं जागरण कय पति के अर्पण कय एहि सँ उद्धार कयलनि । 

 

(११) ॥ वैशाख कृष्ण वरूथनी एकादशी महात्म्य ॥

भगवान कहलखिन हे युधिष्ठिर ! वैशाख मासक कृष्ण पक्षक एकादशी के नाम बरुथनी एकादशी थिक । ई व्रत अत्यन्त फलदायक अछि । शास्त्र मे हाथी, घोड़ा, भूमिदान उत्तम कहल गेल अछि । भूमि सँ तिलदान, तिल सँ स्वर्ण दान और स्वर्ण सँ अन्‍न दान श्रेष्ठ अछि । अन्‍नदान, कन्यादान सँ वरुथनी एकादशी केँ व्रत श्रेष्ठ अछि । एहि व्रत मे दशमी के सात्विक भोजन कऽ नियम, संयम, निष्ठा सँ व्रत करबाक चाही । एहि व्रत केँ प्रभाव सँ यमराज संतुष्ट भऽ जाईत छथि । इति ।

 

(१२)॥ बैशाख शुक्ल मोहिनी एकादशी व्रत महात्म्य ॥
भगवान श्री कृष्ण कहलखिन - हे धर्मपुत्र ! बैशाख मासक शुक्ल पक्षक एकादशीक नाम मोहिनी थिक । एहि व्रतक महात्म्य राम जी वशिष्ट सँ पुछलखिन । वशिष्ठजी उत्तर देलखिन:- सरस्वती नदी के तट पर भद्रावती नामक नगर छल । ओहिमे धृतमान नामक राजा राज्य करैत छलाह । ओहि राज्य मे एक धनपाल नामक वैश्य सेहो छल । वो बड़ धर्मात्मा तथा विष्णु के भक्‍त छल । हुनका पाँचटा पुत्र छलनि । ज्येष्ठ लड़का महापापी छल । ओकरा जुआ खेलेनाई, शराब पिनाई आ नीचकर्म मे हमेशा रहैत देखि हुनक पिता किछु धन दऽ कऽ घर सँ बाहर कय देलकनि । पिताक देल सम्पत्ति सँ किछु दिन समय कटलनि । आब ओ धनहीन भऽ गेलाक कारण चोरि करय लगलाह । एक समय चोरी करैत नगर रक्षक द्वारा पकड़ा गेला और ओ कारागार मे बन्द कऽ देलकनि । कारागारक समय समाप्त भेला पर हुनक राज्य सँ बाहर कऽ देलकनि । ओहिके बाद वैश्य पुत्र जंगल मे रहि पशु पक्षी के शिकार कऽ समय विताबय लगलाह ।

एक दिन जंगल मे शिकार नहि भेटलाक कारण भूख प्यास सँ बेचैन भऽ एक मुनि के आश्रम मे गेलाह और हाथ जोड़ि मुनि के कहलखिन हम बड़ पातकी छी । एहि पापसँ उद्धार होयबाक कोनो उपाय कहल जाय । मुनि कहलखिन-वैशाख मासक शुक्ल पक्षक एकादशी व्रत करु । एहि सँ जन्म जन्मान्तर के पाप सँ उद्धार भय जायब । मुनि के कहला पर वैश्य कुमार एहि व्रत केँ कऽ पाप रहित भऽ विष्णु लोक केँ प्राप्त केलाह । इति । 

 

(१३) ॥ ज्येष्ठ कृष्ण अपरा एकादशीक महात्म्य ॥
श्री कृष्ण जी कहलखिन-हे युधिष्ठिर ! ज्येष्ठ मासक कृष्ण पक्षक एकादशीक नाम अपरा थिक । इ व्रत महापाप के नाश करय वला अछि । यदि क्षत्रिय पुत्र युद्ध भूमि सँ पीठ देखा भागि जाय, धर्मशास्त्र नरकक अधिकारी कहैत अछि, परन्तु अपरा एकादशी कयला पर एहि व्रतक प्रभाव सँ निश्‍चय स्वर्गक प्राप्ति हेतनि । जे माता-पिता तथा गुरुक निन्दा करैत छथि नीति सँ वो नरकक भागी होइत छथि, परन्तु एहि व्रत के कयला सँ वैकुण्ठ के प्राप्त करैत छथि । जे फल वद्रिका आश्रम मे निवास कयला पर, सूर्य ग्रहण मे कुरुक्षेत्र मे स्नान कयला पर, गौदान केला पर प्राप्त होइत अछि ओ फल अपरा एकादशी व्रत कयला पर भेटैत अछि । एहि व्रतक महात्म्य सुनला सँ पाप दूर भागि जाइत अछि, जेना कि सिंहक भय सँ मृग । इति । 

 

(१४) ॥ ज्येष्ठ शुक्ल निर्जला एकादशी महात्म्य ॥

ज्येष्ठ मासक शुक्ल पक्षक एकादशीक नाम निर्जला एकादशी थिक । एक समय भीमसेन व्यास मुनि लग जाय के कहलखिन कि हमर पूज्य माता कुन्ती व पूज्य भाई युधिष्ठिर तथा अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी सहित एकादशीक व्रत करैत छथि और हमरो एहि दिन अन्‍न खाय सँ मना करैत छथि । ई व्रत १५ दिन पर होइत अछि । एहि विषय लऽ कऽ घरमे झगड़ा होबय लगैत अछि । हमरा पेट मे अग्निक बास अछि । यदि अन्‍न अहार नहि करी तऽ अग्नि चर्बी चाटि जायत । अतः अपने एहि के उपाय कहू जे १ वर्ष मे एक दिन मात्र व्रत कयला सँ २४ एकादशी केँ व्रतक फल प्राप्त भऽ जाय और सम्पूर्ण परिवार के संग स्वर्ग प्राप्त करी । 

व्यास जी उत्तर देलखिन -ज्येष्ठ शुक्ल पक्षक एकादशीक नाम निर्जला एकादशी अछि । भगवानक चरणामृत छोड़ि श्रद्धा सँ एहि व्रत के बिना अन्‍न-जल ग्रहण कयने करय वला के २४ एकादशीक व्रतक फल प्राप्त होइत अछि तथा निश्‍चय स्वर्ग के प्राप्त करैत अछि । एहि मे पितर के निमित्त पंखा, छाता, कपड़ाकेर जूता, सोना, चाँदी या माटिक घैल, फल इत्यादि दान करी । यदि एहि व्रत के फलाहार कऽ करी तऽ ध्रुवक प्रथम मासक तपस्या के तुल्य फल प्राप्त होय, यदि निराधार व्रत करी तऽ ध्रुवक छः मासक तपस्या समान फल प्राप्त होइत अछि । एहि व्रत के श्रद्धा सँ करी । नास्तिक के संग नहि करी । सब जीव मे वासुदेव रूप केँ दर्शन करी । कोनो जीव के हिंसा नहि करी, अपराध के क्षमा करी, क्रोध के त्याग करी, सत्य बाजी, हृदय मे भगवानक रूप के ध्यान राखी । एहि सँ व्रतक पूर्ण फल प्राप्त होयत । राति मे रामक लीला, कृष्णक लीलाक गुणानुवाद करैत जागरण करी । सवेरे द्वादशी तिथि मे ब्राह्मण भोजन कराय दक्षिणा दय ब्राह्मण सँ आशीर्वाद ली । एहि सँ अश्‍वमेघक यज्ञक फल के समान व्रतक फलभागी बनब । तत्पश्चात अपने पारणा करी । एहि एकादशीक व्रतक महात्म्य सुनला सँ सब पाप सँ मुक्‍त भऽ जायत अछि ।

(१५) ॥ आषाढ़ कृष्ण योगिनी एकादशी महात्म्य ॥

श्री कृष्ण जी कहलखिन-हे युधिष्ठिर ! आषाढ़ मासक कृष्ण पक्षक एकादशीक नाम योगिनी एकादशी थिक । एहि व्रतक महात्म्य कहैत छी ।

अलकापुरी मे शंकर के भक्‍त कुबेर जी छलाह । पूजा के लेल हेममाली फूल प्रतिदिन लबैत छलनि । हुनक स्त्री बहुत सुन्दर छलनि । नाम विशालाक्षी रहनि । हेममाली एकदिन मानसरोवर सँ पुष्प तोड़ि घर अयला, पत्‍नीक रूप लावण्य पर मोहित भऽ कामातुर भऽ गेलाह । ओ फूल देनाई बिसरि गेलह । कुबेरक भण्डारी फुल आबय के रस्ता के देखैत रहय । फूल नहि एलापर एक यक्ष मालि के घर पर गेल । ओतय दुनू पति-पत्‍नी के काम क्रीड़ा देखि वापस भऽ कुबेर के सुचित कऽ देलकनि । कुबेर मालि पर कुपित भऽ श्राप दय देलकनि जे तोरा स्त्री के वियोग सँ दुःख भोगय पड़त आ मृत्यु लोक मे जा कोढ़ी भऽ जयबह ।

कुबेर के श्राप सँ माली पृथ्वी पर आबि स्त्री सँ वियोग भऽ कोढ़ि भऽ असह्य दुःख भोगय लागल । परञ्च मालीक अन्तःकरण पवित्र छल । शंकर भक्‍ति सँ पूर्व जन्मक स्मृति रहनि । एहि पाप सँ मुक्‍त होयबा लेल हरिद्वार मे आबि गंगा मे स्नान कयलनि । ओतय सँ देवप्रयाग जमुनोत्री पर जाय महामुनि मार्कण्डेय के आश्रम मे पहुँचि मुनि के सविनय अपन अपराधक कथा सुना एहि पाप सँ मुक्‍तिक उपाय पुछलखिन । 

मार्कण्डेय मुनि कहलखिन-आषाढ़ मासक कृष्ण पक्षक योगिनी एकादशी विधि विधान के साथ करु । मुनि के कथानुकुल एहि व्रत के कऽ व्रतक प्रभाव सँ दिव्य रूप प्राप्त कऽ पुनः अपन धाम स्वर्ग के प्राप्त कयलनि । इति । 


(१६) ॥ आषाढ़ शुक्ल देवशयनी एकादशी ॥

श्रीकृष्ण युधिष्ठिर सँ कहलखिन- आषाढ़ मासक शुक्ल पक्षक एकादशीक नाम देवशयनी एकादशी थिक । आजुक दिन भगवान शयन मे जाइत छथि । आषाढ़ शुक्ल एकादशी सँ कार्तिक शुक्ल एकादशी के हुनक उत्थान होइत छनि, ई चारि मास के चतुर्मस्या कहल जाइत अछि । एहि समय मे कोनो शुभकार्य नञि होइत अछि । 

एहि एकादशी केँ पौराणिक कथा सुनू । सूर्यवंश मे एक प्रसिद्ध सत्यवादी मान्धाता राजा अयोध्यापुरी मे राज करैत छलाह । एक समय हुनका राज्य मे अकाल पड़ि गेल । प्रजा दुःखी भय भूख सँ मरय लगलनि, हवनादि शुभकार्य बन्द भय गेलनि । राजा ई देखि दुःखी भऽ वन के प्रस्थान कयलनि । ओतय जंगल मे अंगिरा ऋषि के आश्रम मे जाय विनयपूर्वक पुछलखिन - हे सप्तऋषि मे श्रेष्ठ अंगिरा जी ! हम अहाँक शरण मे आयल छी, राजाक पाप सँ प्रजा दुःखी होइत अछि । हम जीवन मे कोनो तरहक पाप नञि कयने छी । अतः अपने दिव्य दृष्टि सँ देखि अकाल पड़बाक कारण कहू? अंगिरा कहलखिन- सतयुग मे ब्राह्मण केँ वेद पढ़नाई, तपस्या कयनाइ धर्म थिक, परन्तु अपनेक राज्य मे एहि समय एक शुद्र तपस्या कय रहल अछि, एकरा मारि देला सँ प्रजा सुखी रहत । 

राजा कहलखिन हम निर‍पराध तपस्या करयवला शुद्र के नञि मारब, एहि के लेल अपने सुगम दोसर उपाय बताउ । ऋषिराज कहलखिन- भोग तथा मोक्ष देबयवला देवशयनी एकादशी थिक । एहि के विधि विधान सँ कयला पर चतुर्मस्या भरि वर्षा होइत रहत । एहिसँ प्रजा सुखपूर्वक रहत । ई सभ सँ सुगम उपाय अछि । मुनि के शिक्षा सँ राजा प्रजा सहित एहि एकादशीअक व्रत कऽ सब कष्ट सँ मुक्‍त भऽ गेल । प्रजा सुखपूर्वक रहय लागल । इति ।

(१७)॥श्रावण कृष्ण कामिका एकादशी व्रत महात्म्य ॥
भगवान कृष्ण कहलखिन- हे युधिष्ठिर ! श्रावण मासक कृष्ण पक्षक एकादशीक नाम कामिका एकादशी थिक । पृथ्वी दान, स्वर्ण दान, कन्यादान इत्यादि महादान के फल सँ विष्णु पूजाक फल अधिक अछि । कामिका एकादशी के समान विष्णु पूजाक फल अछि, जे फल मनुष्य के अध्यात्म विद्या सँ प्राप्त होइत अछि, ओहि सँ विशेष फल एकादशी सँ प्राप्त होइत अछि । भगवान विष्णु पर १ पत्र तुलसी चढ़ओला सँ एक भार स्वर्ण आ चारि भार चाँदी दान करबाक फल प्राप्त होइत अछि । बढ़िया वस्त्र आ अमूल्य भूषण पर भगवान एतेक प्रसन्‍न नहि होइत छथि जतेक तुलसी सँ । तुलसीक दर्शन मात्रसँ पाप भस्म भऽ जाइत अछि । तुलसी दर्शन मात्र सँ मनुष्य पवित्र भऽ जाईत अछि । भगवान के चरण मे तुलसी पत्र अर्पण कयला सँ भवसागर सँ मुक्‍त भऽ जाइत अछि । 

 

(१८) ॥ श्रावण शुक्ल पुत्रदा एकादशीव्रत महात्म्य ॥
श्री कृष्ण जी कहलखिन- हे युधिष्ठिर ! श्रावण मास के शुक्ल पक्षक एकादशीक नाम पुत्रदा थिक । ई पुत्रक इच्छा पूर्ण करयवाली अछि ताहि हेतु एहि एकादशीक नाम पुत्रदा थिक । एहि मे गौमाताक पूजन विशेष फलदायक होइत अछि ।

एक महीमती नगरी छल । ओहि मे महीजीत नामक राजा राज्य करैत छलाह । ओ बड़ धर्मात्मा छलाह, परन्तु पुत्रहीन छलाह । पुत्रक प्राप्ति के लेल बड़ प्रयास कयलनि, परन्तु सब व्यर्थ भऽ गेलनि । राजा के शोक युक्‍त देखि मन्त्री दुःखी भऽ लोमस ऋषि के शरण मे जाय दण्डवत प्रणाम कऽ विनय के साथ पुछलखिन-हमर राजा पुत्रहीन छथि । ओ शोकाकुल भऽ घर मे पड़ल छथि । अपने कृपा कऽ कोनो उपाय कहू जाहिसँ हुनका घर मे कुलदीपक प्रकाश होइन ।

मुनि दिव्य दृष्टि द्वारा पूर्वजन्मक कर्म देखि कहलखिन-अहाँक राजा पूर्वजन्म मे महा कंगाल और दुराचारी छलाह । एक दिन एक गौ घुमैत-घुमैत प्यास सँ व्याकुल भऽ हुनका ओहिठाम आयल परन्तु ओ पानि नञि दऽ लाठी सँ मारि कऽ भगा देलखिन, ओहि पाप सँ अहाँक राजा निःसंतान छथि । पूर्वजन्म मे ओ गरीबी के कारण भूखे प्यासे राति के चलैत-चलैत पूर्ण रात्रि जागरण केलनि । ओहि दिन श्रावण शुक्ल पुत्रदा एकादशी छल । भूल सँ ओ व्रत कऽ लेलनि, परन्तु ओ दूध, पुत्र ओ धन देबय वाली पुत्रदा एकादशी छल । ओहि व्रतक प्रभाव सँ राज्यक प्राप्ति भेलनि । परन्तु गौ के श्रापक कारण ओ निःसंतान छथि । यदि अहाँ सभ प्रजा सहित श्रावण शुक्ल एकादशीक व्रत विधि-विधानसँ कऽ राजा के एकर फल प्रदान कऽ देबनि तऽ निश्‍चय पुत्रक प्राप्ति होयतनि । व्रतक विधि अछि-ओहि दिन गाय के पूजन कऽ मधुर जल ओ मधुर फल सँ प्रसन्‍न कऽ द्वादशी के दिन पेट भरि लड्‍डू पुरी इत्यादि के भोग लगा कऽ आशिर्वाद माँगि ली । मुनि के कथनानुकूल मंत्री प्रजा सहित एहि व्रत केँ कऽ राजा के फल दऽ देलनि । एहि सँ राजा केँ पुत्रक प्राप्ति भेलनि । इति ।


(१९)॥ भाद्रपद कृष्ण अजा एकादशी महात्म्य ॥

भगवान कृष्ण कहलखिन-हे धर्मपुत्र भादव मासक कृष्ण पक्षक एकादशीक नाम अजा एकादशी थिक ।

सूर्यवंशमे २१ वीं पीढ़ी पर राजा हरिश्‍चन्द्र अयोध्या नगरी मे भेल छलाह हुनका द्वारि पर एक श्याम पट्ट लागल रहैन, ओहिपर लिखल छल कि याचक के मुँहमाँगा दान देल जाइत अछि । ई पढ़ि विश्‍वामित्र राजासँ राज्य के दान रूपमे माँगि लेलकनि राजा खुशिसँ राज्य दान कय देलखिन मुनि विश्‍वामित्र राज्य दानकऽ दक्षिणा क याचना कय देलखिन । राजा दक्षिणा लेल काशी नगरीमे जाय अपने श्मशान घाटक डोम के ओहिठाम मुर्दा जलावय के कार्य करय लगलाह । रानि मालिन के दासीवनि रहय लगलीह । पुत्र के विश्‍वामित्र नाग बनि डसि लेलखिन । 

एहनो विपत्ति अयलाक बाद राजा अपन सत्यपर अडिग रहलाह । वोहि समय गौतम मुनि केँ राजा पर दया आवि गेलनि ओ राजासँ कहलखिन-अहाँ भाद्र कृष्ण पक्षक अजा एकादशी केँ व्रत करु सव संकट सँ मुक्‍त भय जायव । ई कहि गौतम मुनि अन्तर्ध्यान भय गेलाह । राजा मुनि के कथनानुकूल एहि व्रत के सविधि कयलनि एहि केँ प्रभावसँ स्वर्गसँ जयकारक घोस होमय लागल आ अपन सामने मे ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्रादि सब देवता के दर्शन भेलनि स्त्री आभूषण सहित, तथा पुत्र के जीवित देखि सबके साथ अयोध्या आवि प्रजासहित एकादशी व्रत कऽ अन्तमे प्रजासहित स्वर्गधाम केँ प्राप्त कयलनि । इति । 

 

(२०) ॥ भादव शुक्ल वामन (पार्श्‍व परिवर्तनी) एकादशी ॥

श्रीकृष्ण कहलखिन-हे युधिष्ठिर ! भादव शुक्ल पक्षक एकादशीक नाम पार्श्‍व परिवर्तनी एकादशी थिक । एहि मे वामन भगवान केँ पूजा होइत अछि । 

त्रेता युग मे प्रह्‌लादक पौत्र राजा बलि राज्य करैत छलाह । ओ ब्राह्मणक सेवक आ भगवान विष्णुक भक्‍त छलाह । ओ देवताक शत्रु छलाह । ओ अपन भुज बल सँ इन्द्रादि देवता सभ के पराजित कऽ स्वर्ग सँ भगा देने छलाह । भगवान देवता सभ के दुःखी देखि वामन रुप धारण कऽ बलि सँ तीन डेग पृथ्वीक याचना कयलनि। बलि स्वेच्छा सँ तीन डेग पृथ्वीक दानक संकल्प कऽ वामन के दऽ देलखिन । वामन रूपी भगवान अपन विराट रूप सँ दू डेग मे अकाश पृथ्वी के नापि लेलनि । तेसर डेग मे राजा बलि अपन शरीर के नापय के लेल कहि देलखिन । ओहि समय भगवान बलिक शरीर नापि हुनका पताल भेज देलखिन । परन्तु बलि पताल जाय हुनक चरण पकड़ि लेलकनि आ कहलकनि हम अपने चरण के मन मन्दिर मे वास करय चाहैत छी । एहि पर भगवान कहलखिन - यदि अहाँ वामन एकादशीक व्रत विधान सँ करी तऽ अहाँक द्वारि पर हम कुटिया बना कऽ रहब । राजा बलि विधि पूर्वक एहि व्रत केँ कयलनि । ताहि सँ भगवान अपन एक रूप ओतय हमेशा के लेल छोड़ि विष्णु लोक आबि गेलाह । इति । 

(२१)॥ आश्विन कृष्ण इंदिरा एकादशी ॥

श्री द्वारिकानाथ युधिष्ठिर सँ कहलथिन - हे धर्मपुत्र! आश्विन मासक कृष्ण पक्षक एकादशीक नाम इंदिरा एकादशी थिक । एहि के महत्व हम कहैत छी ।

एक समय नारद ब्रह्म लोक सँ यम लोक मे अयलथि । एक धर्मात्मा राजा के यमलोक मे दु:खी देखि दिल मे दया आबि गेलनि । हुनक पुत्र महिष्मती नगरीक राजा छलथिन । नारद मुनि राजदरबार मे आबि राजा सँ कहलथिन कि अहाँक पिता कें हम यमलोकक सभा मे देखलहुँ, हुनक शुभ कर्म स्वर्गक प्राप्ति योग्य छनि । परन्तु एकादशी व्रत के अभाव मे ओ यम लोक मे छथि । अत: अपने इंदिरा एकादशी व्रत कय पिताक नाम संकल्प दय देलाक उपरान्त ओ इन्द्रलोक के प्राप्त अवश्य करताह । एहि व्रतक विधान अछि - दशमी दिन पितृ के श्राद्ध कय ब्राह्मण भोजन सँ प्रसन्न कऽ गो ग्रास, श्वान ग्रास, काक ग्रास दऽ यथाशक्ति पेट भरि उत्सर्ग करी ।

ओहि दिन मिथ्या भाषण नहि करी, भूमि पर शयन करी, प्रात: श्रद्धापूर्वक एकादशीक व्रत करी, ब्राह्मण के यथाशक्ति दक्षिणा दऽ फलाहार करी तथा गौ माता के मधु फल सँ प्रसन्न करी, रात्रि मे जागरण कऽ विष्णु भगवान के पूजन करी । व्रतक विधान कहि मुनि अन्तर्ध्यान भऽ गेलाह ।

मुनि के द्वारा कहल गेल इंदिरा एकादशीक व्रत विधान पूर्वक परिवार सहित कऽ ब्राह्मण के समक्ष पिताक नाम सँ संकल्प कऽ दऽ देलखिन । ताहि के प्रताप सँ पिता के इन्द्र लोकक प्राप्ति भेलनि ।

(२२) ॥आश्‍विन शुक्ल पाशांकुशा एकादशी महात्म्य 

श्रीकृष्ण जी कहलखिन- हे युधिष्ठिर ! आश्‍विन मासक शुक्ल पक्षक एकादशीक नाम पाशांकुशा एकादशी थिक । एहि व्रत केँ श्रद्धा भक्‍ति सँ भगवान विष्णु के पूजन कऽ कयल जाय तँ मनोवांछित फलक प्राप्ति होइत अछि । एहि लोक मे सुन्दर स्त्री, पुत्र और धन सब सांसारिक सुखक प्राप्ति होइत अछि । अन्त मे अपने तथा मातृपक्षक दश पुरुष तथा स्त्री पक्षक दश पुरुष विष्णु रूप भऽ बैकुण्ठ कऽ जाइत छथि ।

एहि एकादशी सँ पूर्व एक दिन भगवान राम रावण केँ वध कयने छलाह । रावणक स्वभाव तथा कर्म राक्षसी छलनि परन्तु ओ ब्राह्मण वंशज छलाह, अतः ब्रह्म हत्याक पाप सँ मुक्‍ति के लेल एहि एकादशीकऽ व्रत लक्ष्मण, सीता, भालू, बन्दर सहित कयलनि आ पाप सँ रहित भेलाह । ईति ।

 

(२३) ॥ कार्तिक कृष्ण रमा एकादशी महात्म्य ॥

भगवान कृष्ण कहलखिन-हे युधिष्ठिर ! कार्तिक मासक कृष्ण पक्षक एकादशीक नाम रमा एकादशी थिक । एहि व्रतक महात्म्य एहि तरहक अछि ।

एक मुचकुन्द नामक राजा सत्यवादी तथा विष्णु भक्‍त छलाह । हुनक कन्याक नाम चन्द्रभागा छलनि । ओ शरीर सँ निर्बल छलीह परंच श्रद्धा पूर्ण शक्‍तिशाली छलनि । 

एक समय सौभन सासुर मे रहथि ओहि समय रमा एकादशीक समय छल । राजा मुचकुन्द सम्पूर्ण राज्य मे ढिढोरा दय देलनि जे काल्हि रमा एकादशी अछि । एहि एकादशीक व्रत प्रजा सहित पशु पक्षी सब के कयनाई अनिवार्य थिक । राजकुमार सौभन राजाक घोषणा सुनि पत्‍नी के पास जाय कहय लगथिन जे यदि हम उपवास करब तँ अवश्य मरि जायव । ताहि पर पत्‍नी कहलथिन अहाँ एहि राज्यसँ बाहर चलि जाउ । 

राजकुमार पत्‍नी कें उत्तर देखथिन कि ई सत्य अछि जे हमरा मे उपवास करवाक शक्‍ति नञि अछि, परन्तु श्रद्धा भक्‍ति पूर्ण अछि अतः शरीर छूटि जाय परन्तु एहिव्रत केँ अवश्य करब । राजा व्रत कयलनि । भूखल प्यासल रहि दिन व्यतीत कय रात्रि मे जागरण सेहो कयलनि परंच प्रातः होवय सँ पहिने शरीर त्याग कऽ देलनि । एहि व्रतक प्रभाव सँ इन्द्राचल पर्वत पर रत्‍न जड़ित उतम नगर प्राप्त भेलनि । ओहि स्थान पर इन्द्र के समान रहय लगलाह । 

एक समय राजा मुचकुन्द के नगर के रहयवला एक सोमनाथ शर्मा नामक ब्राह्मण तीर्थ करबाक लेल घर सँ चलला, घुमैत-घुमैत ओ ओहि नगर मे गेला जाहि नगर मे राजा मुचकुन्दक जमाय स्वर्गक भोग कऽ रहल छलाह । ब्राह्मण हुनका सँ पुछलखिन अहाँ कोन तरहें उत्तम नगर के प्राप्त कयल? सौभन उत्तर देलखिन ई सभ रमा एकादशीक प्रभाव अछि । एहि सँ जन्म-जन्मान्तर के पाप सँ मुक्‍ति भऽ अनुपम नगर प्राप्त कयल अछि । परंच ई नगर अध्रुव अछि । एकरा ध्रुव करबाक शक्‍ति मात्र हमर पत्‍नी कें छनि । अतः अपने ई संदेश पत्‍नी सँ अवश्य कहि देल जाय । 

ब्राह्मण वापस घर आबि चन्द्रभागा सँ सब शुभ संदेश कहिकय हुनका इन्द्राचल पर्वत पर मुनि कामदेव कें आश्रम दय एलखिन । मुनि चन्द्रभागाँ केँ मन्त्र द्वारा अभिषेक कऽ देलखिन । चन्द्रभागा दिव्य रूप धारण कऽ पति केँ समीप आबि गेलथि । वो पति के कहलथिन-हम जन्म सँ एकादशी व्रत कय रहल छी एहि के प्रभाव सँ अनुपम नगर ध्रुव भऽ जायत । इति । 

 

(२४)॥ कार्तिक शुक्ल प्रबोधिनी एकादशी महात्म्य ॥
श्री कृष्ण जी कहलखिन-हे युधिष्ठिर ! कार्तिक मासक शुक्ल पक्षक एकादशीक नाम प्रबोधनी एकादशी थिक । एहि मे भगवाण विष्णु जगैत छथि । एहि व्रतक महात्म्यक कथा ब्रह्मा जी नारद मुनि सँ कहने छलखिन । जिनका मन मे प्रबोधनी एकादशी व्रत करवाक इच्छा होइत छनि हुनका सौजन्मक पाप भस्म भऽ जाईत छनि । जे एहि व्रत के विधि पूर्वक करैत छथि हुनक अनन्त जन्मक पाप भस्म भऽ जाइत छनि । 

प्रबोधनी एकादशीक व्रत कयला सँ मनुष्य केँ आत्मा कें बोध होइत छनि । जे ई व्रत कऽ विष्णुक कथा केँ सुनैत छथि हुनका सातों द्वीप दान करबाक फल प्राप्त होइत छनि । जे कथा वाचक के पूजा करैत छथि ओ उत्तम लोक के प्राप्त करैत छथि । कार्तिक मास मे तुलसी पत्र द्वारा जे भगवान के पूजा करैत छथि हुनक हजार जन्मक पाप नष्ट होइत छनि । जे पुरुष कार्तिक मे वृन्दा के (तुलसी) दर्शन करैत छथि ओ हजार युग वैकुण्ठ मे वास करैत छथि । जे तुलसी गाछ लगवैत छथि या तुलसीक जड़ि मे पानि दैत छथि हुनक वंश निःसंतान नञि होइत छनि । 

जाहि घर मे तुलसीक गाछ होय ओहि घर मे सर्प देवता वास करैत अछि । यमराज के दूत ओहि स्थान पर नञि अबैत छथि । जे पुरुष तुलसी वृक्ष के समीप दीप जरबैत छथि हुनका हृदय मे दिव्य नेत्रक प्रकाश होइत छनि । जे शालग्राम के चरणोदक मे तुलसी पत्र मिलाकय पिबैत छथि हुनका अकाल मृत्यु नञि होइत छनि । एहन पतित पावनि तुलसीक पूजन एहि मन्त्र सँ करबाक चाही : ऊँ श्री वृन्दाय नमः । जे चतुर्मास (आषाढ़, श्रावण, भादव, आश्‍विन, आषाढ़ शुक्ला एकादशी सँ कार्तिक शुक्ल एकादशी पर्यन्त चतुर्मास्य थिक) या एकादशी दिन मौन भऽ स्वर्ण सहित तिल दान, नमक त्याग, शक्‍कर दान, देव स्थान मे दीपक जलेला सँ महापुण्य प्राप्त करैत छथि । कार्तिक मास मे तीर्थस्थान या नदी तट पर वास केनाई महा पुण्यदायी होइत अछि । प्रबोधनी एकादशीक महात्म्य सुनला सँ अनेक गोदानक फल प्राप्त होइत अछि । इति ॥ 

 

(२५) ॥ अथः परमा (अधिक मासक) कृष्ण एकादशी व्रत ॥

भगवान कृष्ण कहलथिन -हे धर्मपुत्र ! अधिक मासक कृष्ण पक्षक एकादशीक नाम परमा थिक । एहि महात्म्यक कथा सुनू । काम्पल्य नगर मे सुमेधा नामक एक ब्राह्मण रहैत छलाह । हुनकर स्त्रीक नाम पवित्रा छलनि । वो पतिव्रता छली - अतिथि सत्कार मे अपने भूखल रहि याचक के भोजन दैत छलीह, कारण सुमेधा ब्राह्मण दरिद्र छलाह । एक दिन कौडिल्य ऋषि हुनका घर पर अयलथि । पति पत्‍नी हुनका श्रद्धा भक्‍ति सँ पूजन कऽ दरिद्रता नाशक उपाय पुछलखिन ।

कौडिल्य मुनि कहलखिन-दरिद्रता के दूर करबाक साधारण उपाय अछि । अहाँ पति-पत्‍नी सहित परमा एकादशीक व्रत विधि विधान सँ कऽ रात्रि मे जागरण करु । अहाँक दुर्भाग्य सौभाग्य मे बदलि जायत । यक्ष राजा कुबेर परमा एकादशीक व्रत कयलनि तँ भगवान शंकर हुनका भण्डारी बना देलखिन ।

ई व्रत कहि मुनि ओतय सँ चलि गेलाह । ब्राह्मण ओ ब्राह्मणी परमा एकादशीक व्रत विधि विधान सँ अमावश्या तिथि तक कयलनि । एहिक प्रभाव सँ पड़िव दिन एक राजकुमार घोड़ा पर चढ़ि कऽ अयलाह आ उत्तम घर तथा एक गाँव हुनका नाम कऽ चलि गेलाह । एहि परमा एकादशीक प्रताप सँ ब्राह्मण एहि लोक मे अनन्त सुख भोगि अन्त मे इन्द्र लोक केँ प्राप्त करैत छथि । इति । 

 

(२६) ॥अधिक मासक शुक्ल पक्षक पद्‍मिनी एकादशी महात्म्य ॥

भगवान श्री कृष्ण कहलखिन-हे युधिष्ठिर ! अधिक मासक शुक्ल पक्षक एकादशीक नाम पद्‍मिनी थिक । एहि एकादशी मे हमर तथा हमर पत्‍नी वृषभानु दुलारी तथा शिव पार्वतीक पूजा कयल जाईत अछि । एहि के विधान अछि-दशमी दिन झूठ बजनाई, परक निन्दा, कुकर्म के त्यागी आ पृथ्वी पर रात्रि शयन करी । एहि व्रतक महात्म्य पुलत्स्य मुनि नारद के कहलथिन । त्रेता युग मे एक महिष्मती नामक नगर मे कृतवीर्य नामक राजा राज्य करैत छलाह । हुनका एक सौ स्त्री छलनि परन्तु एकोटा पुत्र नञि भेलनि । पुत्रक प्राप्ति के लेल पुत्रेष्टि यज्ञादि अनेक उपाय केलनि तथापि पुत्र प्राप्ति नञि भेलनि । राजा निराश भऽ गन्धमादन पर्वत पर जा तपस्याक विचार कयलनि । हुनक स्त्री सेहो संग गेलथिन आ पति पत्‍नी दुनू गन्धमादन पर्वत पर जा कऽ दश हजार वर्ष धरि तपस्या कयलनि, परन्तु सिद्धि प्राप्ति नञि भऽ सकलनि । राजा रानीक देह सुखा गेलनि आ मात्र हड्‌डीक पिंजरा रहि गेलनि । रानी विचार कयलनि आब महा पतिव्रता अनुसुयाक शरण मे जाय एकर उपाय पुछबाक चाही । राजा रानी अत्रि मुनिक पत्‍नी अनुसुयाक आश्रम मे जाय दण्डवत प्रणाम कऽ कह लगलखिन- हम राजा हरिश्‍चन्द्रक पुत्री छी । पति के संग तपस्या करवा लेल आयल छी । हम पति पत्‍नी दश हजार वर्ष धरि तपस्या कयल परन्तु सफलता नञि भेल, पुत्रक प्राप्ति लेल अपने कोनो उपाय कहू जाहि सँ हमर कल्याण होवय ।

अनुसुया उत्तर देलखिन- अधिक मलमास जे ३२ महिना पर अबैत अछि ओहिमे शुक्ल पक्षक एकादशी केँ विधिपूर्वक व्रत कयला सँ अजेय पुत्रक प्राप्ति होयत, जिनका पर रावण सेहो विजय नञि कऽ सकत । अतः प्रमदा रानी पद्‍मिनी एकादशीक व्रत कऽ कीर्तवीर्य नामक पुत्र प्राप्त कयलनि । कीर्तिवीर्य महाप्रतापी राजा भेलाह । देवता दैत्य सभ हुनका प्रणाम करैत छलनि । राजा रावण के उपर विजय प्राप्त कऽ जेल मे बन्द कऽ देने छलनि, पुलत्स्य मुनि के कहला पर रावण जेल सँ मुक्‍त कयल गेल । श्री सूत जी अट्ठासी हजार मुनि केँ नेमिषारण्य मे एहि व्रतक महात्म्य सुनौने रहथिन । एहि व्रत के कयला सँ सब तरहक सुख पाबि स्वर्ग लोक केँ प्राप्त करैत छथि । इति । 


विध-विधान                       तुसारी 

पूरब दिशा सफेद रंग सँ 

तुस-तुस सारी जन्म क्यारी छत्ताधारी माय गौरी बाप महादेव तिनकर बेटी हम ठकुराइन सात जन्म अईहब होइ, सात जन्म सुइहब होई, शस्त्रोहिया कोइख मे जन्म लेई । नमस्ते नम:, नमस्ते नम:, नमस्ते नम: ।

दक्षिण लाल सँ
अथ्थर पूजू, पत्थर पूजू, पूजू मे तुसारी, पूजू मै संसारी, माय गौरी, बाप महादेव, तिनकर बेटी हम ठकुराइन सात जन्म अईहब होई, सात जन्म सुइहब होई, श्स्त्रोहिया कोइख मे जन्म लेई । नमस्ते नम:, नमस्ते नम:, नमस्ते नम: । 

उत्तर पीयर सँ
आट पूजू पाट पूजू सास ससुर के बाट पूजू, इ पूजने कि हुए, माय गौरी, बाप महादेव तिनकर बेटी हम ठकुराइन, सात जन्म अईहब होई, सात जन्म सुइहब होई शस्त्रोहिया कोइख मे जन्म लेई नमस्ते नम:, नमस्ते नम:, नमस्ते नम: । 
साँझ 
पश्‍चिम - लाल (red


साँझे- साँझे, महासाँझे ई साझेँ ककरा दी? गाय के दी, गाय सात जन्म अहिवाती होई, सीता सन सती होई, गंगा सन पवित्री होई । नमस्ते नम: नमस्ते नम: नमस्ते नम: । 

उत्तर - पीला (yellow) 

उतरेन छी, चपटेन छी, जी छी, जान छी, लक थक थान छी । ई थान ककरा दी? गाय के दी । गाय के देने कि हुअय? सात जन्म अहिवाती होई, सीता सन सती होई, गंगा सन पवित्री होई । नमस्ते नम: नमस्ते नम: नमस्ते नम: 

विध-विधान                                    ॥ उपनयन समीक्षा ॥

वशिष्ट- एको दर प्रसुतानां नाग्निकर्यत्रयं भवेत भिन्नोदस्प्रसूतानां नेतिशाता तपोऽब्रबीत । नारद- नैनं कदाचिदुदवाहो नैकदा मण्डन द्गयम । पारिजाते= एक मात प्रसुतेषु कन्ये वा पुत्रकौ तयोः । सेहो द्घाहं न कुर्वीत तथैव व्रतवन्धनम ॥ भटिकारिकायां= एकस्मिन बत्सरेचैक वासरे मण्डपेतथा कर्तव्यं मंगल स्वस्त्रो भ्रा त्रोर्यमल जातयोः 

वशिष्ट-द्घिशोभंनं त्वेक गृहेऽपि नेष्टं शुभं तु पत्र्चान्नवमि र्दिनैस्तु । आवश्यकं शोभन मुत्सवोवा द्घारे ऽथवाऽऽ विमेदतोवा ॥ नोटः- एक साथ दूसोदर उत्पन्न बालक अथवा बालिका के मुण्डन, उपनयन, विवाह एक साथ निषेक्ष मानल जाइत अछि । आवश्यक भेला पर दूसोदर के उपनयन मण्डप मे द्घार भेद भय दोसर आचार्य द्घारा करा सकैत छी ।

॥ उपनयन मे वर्ष विचार ॥
मनु- गर्भाष्टमे द्वे कुर्वीत ब्राह्याणस्योपनयनम । गर्भादेकादशे राझो गर्भास्तु द्वादशे विशः ॥ ब्रह्यावर्चसब कामस्य कार्य विप्रस्य पंचमे । अश्ववलायन- गर्भाष्टमे ऽष्टमेव्दे पंचमे सप्रमे ऽपि वा द्घिजत्वं प्राप्नुयाद विप्रो, वर्षे त्वेकदशे नृपः । विष्णुषष्टे तु धन कामस्य विद्ग्याकामस्य सप्रमे । अष्टमे सर्वकामस्य नवमे कान्ति मिच्छत: । मनुः- आषाडेशाद द्घाविंशात्र्यतु विंशात्र्य वत्सरात । ब्रह्या-क्षत्र- विंशांकाल औपनायनिक: पर: ॥

॥ आचार्य ब्रह्यणो विचार ॥
स्मृति- सार्थ वेदावचारज्ञः सदाचारी समर्थकः । दयालु क्रोध शून्य निर्लोमोवीतमत्सर ः ।
बृद्घगर्ग- पिता पितामहो भ्राता ज्ञातयो गोत्रया ऽ ग्रजा उपनयने ऽधि कारीस्यात पूर्वाऽभावे परः पर ः ॥
पुनः- पितैवोपनयेत पुत्रं तदभावे पितृःपिता । तद्गभावे पितृ भ्रातातद्र भावेतु सहोदरः ।
ब्रह्यवर्ते- व्रतानामुपवासानां श्राद्घदिनांच संयमे नकरोति क्षौर कर्म ः सो ऽ शुचि सर्व कर्म सु ॥ 

प्रोहित निन्दित लक्षणम
कालिक पु०- काणं व्यंगमपुत्रं वाऽनभिज्ञ मंजितेन्द्गियम । नहखं व्याघितं वापि नृपः कुर्यात्पुरोहितम्‌ ॥

॥ कुशव्रह्य निर्माण विचार ॥
अंगिरा- पंचाशदिभर्भवेर्द व्रह्या तदर्घेनतु विष्टरः । उर्ध्वकेशोमवेद्ग ब्रह्या अघःकेशस्त विष्टरः। = दक्षावर्तो भवेद्रव्रह्या वामा वर्तोऽथ विष्टरः ॥

॥ ब्रह्यदक्षिणा पूर्ण पात्र विचार ॥
गोमिल- अष्टमुक्ति भवेत कुत्र्चिः कुण्चयोष्टो च पुष्कलम। पुषलानिच चत्वारि पूर्ण पात्रं प्रचक्षते (२५६ मुट्ठी चावल )जुटिका वन्धन सः

॥ उपनयन सामग्री ॥

फ़ुल-चानन केशछेदन सामाग्री पूर्ण्पात्र-चाउर
शाहीक काँट पान-सुपारी ठण्ढा जल मौंजी 
चानन जनेउ-अक्षत गरम जल सुपारी ८ जनेउ ८
आचार्य वराणासी पूर्ण पात्र दही-धृत-मक्खन वरूका ८ जनेउतानि ८ चरखा १० 
धोती १ जो० चटुआ गमहारि कुशपत्र २६ मृगचर्म-पलाशदण्ड 
पवित्री हवन सामाग्री अस्तुरा- झोड़ा, पूर्णाहुति सा० पू०
डोड़ाडोरि भूमि सामार्जन कुशल३ गोवर अढ़ियावरदके समावर्तन सामग्री
फ़ूल-चानन गायक गोवर पुरैनीक पात वरण सामग्री पूर्ववत
पान-सुपारी श्रुव, अग्निकास्य पात्र कोपीन १ पूर्ण पात्र, हवन आ पू०
अक्षत-जनेउ आमक लकड़ी दही भात कलश ८ आम्रपल्लव १८
चूड़ाकरण सामाग्री व्रर्हि कुश ६४ पुर्णा हुतीक साम कोपीन-१ दही-तिल 
आसन-कम्बल पैताक कुश पत्र३ पान- फ़ल सुपारी नौआ- दतमनि
जल-कुश पवित्रीच्छेदनार्थक चानन-फ़ूल तेल-चानन-कुमकुम
केशपरि छनिहारि विरनी-१ अक्षत-घृत तेकुशा १ मोड़ा-१
साड़ी-साया समित ३ उपनयनग सामग्री तिल-धोती-वरूआके
लहठी श्रुव सम्मर्जन कु०३ हवन समाग्री पूर्ववत जनेउ-तौनी आदि क०
कोपीन-१ आज्य स्थाली पलासक समित ३ काजर-अयना मेघडम्बर
ब्रह्या वरण सा० घृत गायक कोपीन-१ खराब पनही छड़ी
धोती१ जोड़ प्रणिता पात्र ब्रह्यावरण सामा० गोदान-पुर्णाहुतिसा
पवित्री-डाँणाडोर प्रोक्षणी पात्र पूर्ववत- चूमान दुर्वाक्षत । 

(१) ॥ उद्योग दिन ॥(१) ईष्ट कुलदेवताक निमन्त्रणः- पत्र= लौकिकता पंकजवनी दिनकर शीलागार यशो निशाकर चन्द्गिका घवली कृत संसारतान (गृह देवता क नाम) छी कालिकादेव्यो: नत्वा निवेदयति ( वरुआक पिताक ) शमन ( माघ शुक्ल एकदश्यां तिथौ मत्पुत्रस्योपनयनं भावि तत्सम्पादनीयम श्री मदमी भवदमी कृपयेति शुभम ।
(२) स्वस्ति सौजन्य मलय यशोभित भूवलय तान्छी कालि का देव्यै:(२) ॥ मण्डप निर्माण ( मरवा ठठी ) ॥

मण्डाव निर्वाण शुभदिन मे होईत अछि । एहि दिन गामक समाज के हकार देल जाईत अछि । मण्डव के निर्माण दिन पुनगृह देवता ग्राम देवताक वन्दना गावि वरूआ के चानन, काजर, पागदय हाथमे सुपारी युक्त चाकूदय मुंजक डोरि तथा पाट के लाल धागा सँ ५ टा वन्धन वरूआ प्रथम मण्डप मे दैत छथिकर वादे गाँवक समाज मण्डप वनावय शुरू करैत छथि । सायं कालधरि मण्डप के निर्माण कऽ दैत छथि । चढावय समय तामामे दुवि धान मण्डप के ऊपर छिरकति छथि । ओहि दिन ५ पथिया माँटि वाहर सँ आनि मण्डप मे घरैत छथि । ओहि दिन सँ सांय काल सँ साँझक गीत शुरू भय जाईत अछि तथा राति मे 
(१) पितर गीत- मण्डप के अन्दर खेलवाना, सोहर, डहकन गेनाई शुरू भय जाईत अछि । 

(३) ॥ माँटिमंगल- चरख कट्टी ॥

उपनयन दिनसं पूर्व जे मंगल दिन होयत ओहि दिन माँटि मंगल ओ चरखकट्टी विधि होइत अछि । एकवरूआ पर पाँच स्त्रीगण चरखा कटैत छथि । मण्डप के पश्‍चिम भाग मे वैसिकय । एहिके सूत सँ जनेउ बनाय वरूआ उपनयन काल पहिरथि छथि तथा वोरसी ८ मे १ सौंस सुपारी, गुलर के फ़ल अक्षत चरखा फ़ाटल सूत तथा द्गव्य ८ ब्राह्यण के दान करैत छथि । माटिमंगल= चरखा कटला के बाद फ़ेर ओ चरखा काटय वाली एहव स्त्री ५ थारी लऽ गील माटि अनैत छथि माथ पर धयकऽ ओहि मांटिसँ चुलहा वनावल जाइत अछि, ओहि चुल्हा पर कुमरम के रातिमे भात बनैत अछि ३ विधि मण्डपसँ पश्‍चिम भागेमे सेहो होयत।

(४) ॥ छगरा घूर ॥

कुमरम दिन के एकराति पहिने छगरा-घूर हाँसू नोतल जाइत अछि । जाहि परिवार मे बलि होइत अछि, ताहि परिवार मे छागर के शुद्घ जल सँ स्नान कराय वन्धन मुक्त कय ईष्टदेव के स्थान पर आनि छागर के काटय वला अस्त्र के शुद्घ जल सँ घोकऽ एक पात पर राखि फ़ुल, चानन, अक्षत सँ पुजा अस्त्र के कय, छागर के गला मे लाल पाट के धागा वान्हि देल जाइत अछि । ओहिदिन वरूआक मातृक या पैतृक स्थानक पूरा अलंकरण भगवतीक स्थान मे राखल जाईत अछि । एहिके वाद बलिदान करय वला ब्राह्मण के नया वस्त्र पहिराय पूजास्थान पर वरूआ सहित पुरा परिवारक लोक भगवती के अराधना करैत छथि । बलिदान करय बला जल, फ़ूल, चानन, अक्षत सँ छागर के स्थान कराय सब पूजा सम्मानसँ पुजा करैत छथि, छागर के परीक्षा लेलाक बाद ओहि दिनक विधि समाप्त भय जायत अछि । 

(५) ॥ कुमरम दिनक विधि ॥

कुमरम दिन भगवती केँ अराधना लेल खीर, पुरी, या मिठाईसँ पातरि पड़ैत छनि । ओहि दिन हुनक अँचरी बदलल जाईत छनि तथा सिन्दूर पिठार सँ भगवती स्थान मे थापा देल जाईत छनि । ओहि दिन अनगनीत एहिवातीके सिन्दूरहार पड़ैत छनि । सिन्दूरहार मे खीर, पुरी यथा विभव द्गव्य सिन्दूरहार नेन हारि के तेल सिन्दूर सँ विभूषित कय हाथ मे सम्मान दय भगवतीक अराधना कयल जाईत अछि । एहि के बाद बलिदान कयल जाईत अछि । आँगन मे बलिदान कयलाक बाद ब्रह्यस्थान (ग्राम डिहवार के पूजा होइत अछि) । 

(६) ॥ ब्रह्यस्थान के विधि ॥

(१) ब्रह्यक पूजा सम्मान= दूध, पीठ, जनेउ-५ जो० सुपारी५, पानडंडी लागल ५ दीप, धूप सँ अराधना कयल जाईत अछि ।
(२) देबीके पूजा सम्मान = दूध पीठ, सिन्दूर, टिकुली, चूड़ी सँ देवीके पूजा होइत छनि ।
हनुमान जी के दूध, लडु सँ अराधना होइत छनि 
नोट- जिनका बलिप्रदान होईत छनि ओ बलिप्रदान करैत छथि ।

(७) ॥ कुमरम दिन वेरिया के विधि ॥

बरूआ के स्नान करावय लेल केश नेनहारी पूर्व तरहे माथ झाँपी गीत गावय वाली के साथ नया पीयर कोपीन पहिरकय पोखरि पर जाईत छथि । वरूआ के माथमे दही, हल्दी पाँटा सुहागिन मिलि लगवैत छथि । नया सूपमे पानि भरि कय पाँच सुहागिन मिलि तीन वेर माथसँ नहवैत छथि । ओहिके बाद केश नेनहारि के साथ पुनः वरूआ पोखरि मे स्नान करैत छथि । स्नान केलाक बाद नया कपड़ा पहिरि वरूआ केश नेनहारि ओ गीत गेनहारि के साथ पाँटाआ सुहागिन के पाँच मुट्ठी के चूरा वाँटि दैत छथि । तखन गामपर अबैत छथि । 

॥ कुमरक रातिक विधि ॥ ( जूटिका वन्धन ) 

रातिमे ब्राह्यण भोजन भेलाक बाद मण्डप पर वरूआ के आनि पुरब मुँह वैसाकय साही काँट सँ टिकके तीन भाग कय सहस्त्रशिरिषा ( श्री सुक्त के ) तीन वेर पढि चावल, दही के आमक पातमे लपेट कय जूटिका बनाय तीनूभाग शिखामे वन्हैत छथिन वरुआ के आचार्य । 

(८) ॥ कौर कल्याणी भात ॥

माँटि मंगल दिन आनल माँटिसँ चुल्हा बनाओल गेल रहैत अछि । ओहि चुल्हापर वरूआ नया माटिक कोहा चढ़वैत छथि । दोसर कात नया माँटिक कराही चढावति छथि । वरूआ अपना मुट्टी सँ पाँच मुट्ठी चावल कोहामे दैत छथि । केश नेनहारि ओहिके भात बनवैत छथि । दोसर कातक कराहीमे एक वड़ तथा पाँचटा वड़ी बनाओल जाइत अछि । बनि गेलाक बाद एक थाली मे भात, बड़ी, बड़ राखल जाईत अछि । खरही के मसाल बनाय ओहि भात के दुनू बगल मे गारल जाईत अछि । ओहि थारीके केश नेनहारि अपना मस्तक पर राखि मरवाके चारू कात तीनवेर घुमि ओहि तरहें भगवती घर जाईत छथि आ थारी के भात सबके बाँटल जाइत अछि ।
(९) उपनयन दिनक विधि

(९) ॥ आममह विवाह ॥

वरूआ केँ चानन, काजर कऽ पाग पहिराय हाथ मे चाकू लय, केशनेनहारि वरूआ केँ आगु लय माथ झाँपि गीत गाइन के संग आमक गाछतर जाइत छथि । ओहिठाम आमक गाछ पर पिठार सँ पाँच थाप्पा दय सिन्दूर लगावति छथि, पुनः पियर धागासँ तीन वेर गाछ के लपेटि उपर सँ आरती पात साटि दैत छथिन । तकर बाद सभ वापस अबैत छथि । 

(१०)॥ मातृका पूजन श्री पूजन आभ्युदिक श्राद्घ ॥ 

आचार्य पूजाक समान= अक्षत, फ़ूल, चानन, जल, धूप, दीप, नैवेद्य, गायक गोवर, दूभि, फ़ल इत्यादि पूजाक समान लय भगवतीक घरमे पुरब मुँह वैसि गाय के गोवर सँ देवाल पर आठ-आठ संख्या मे गोवर के गोल गोल गोली बनाय दू पांति मे उपरसँ नीचा दिश साटि ओहि पर सिन्दूर पिठार लगाय ताहि पर दुविक मूरी साटि पूजाक प्रारंभ करी । षोडशमातृकाक पंचोपचार पूजा कय अन्त मे फ़लके साथ तीन वेर या पाँच वेर घृतक धार दी । एहि के बाद दक्षिणा कऽ समाप्त करि ।

(११) आभ्युदिक श्राद्घक समान - कुश, तिल, मधु, जौ, मखान, पान, सुपारी, धोती, साड़ी, जनेउ, सिन्दूर, चूड़ी, टिकुली, घृत, पूरा, कटहर पात । आचार्य पश्‍चिम मुँह वैसि आभ्युदिक श्राद्घ करथि कर्म के बाद दक्षिणा दय समाप्त करथि । आगाँ उपनयन पद्घति सँ कार्य करू । (१) चूड़ाकरणम्‌ । (२) उपनयनम्‌ (३) समावर्तनम्‌ 

(१२) ॥ रातिम दिन पर्यन्त वरूआक कर्तव्य ॥
समावर्तन कर्म समाप्तोत्तर वरूआ उपनयन दिन सँ तीन रात्रि पर्यन्त मत्स्य, मांस, भोजन, माटिक पात्रमे जलपान एवं स्त्री तथा शुद्घ सँ सम्भाषण नहीं करथि । कौआ कुकुर दिशि नहि ताकथि । शदान्त प्रशवाऽशौचान्न नहि खाथि । 

॥ रातिम दिनक विधि ॥ ( दनही )
वरूआ रातिम दिन केशनेनहारि के साथ पोखरि मे स्नान कय अँगना आवि मरवा के चारू कोन पर ५टा कऽ पुरी खीर दऽ वरूआ जल सँ उत्सर्ग करथि छथि । मातृका पूजालय सेहो एहि तरहैं पुरी खीर दऽ उत्सर्ग करैत छथि । दनही समय मे गीत गाइनके पाँच मुट्ठी कऽ चूरा दैत छथि । एहि विधि के बाद वरूआ नमक खाइत छथि ।

(१३) ॥ रातिम दिन रातुक विधि ॥
ओहि दिन १ सुपारी लऽ खिखिर के विलके सामने खिखिर के निमन्त्रण देल जाईत छनि । सांय सत्यनारायण भगवान केँ पूजा होइत अछि । पूजाक मध्य समय के ५ टा पूरी, खीर खिखिरके विहरिक सामने राखि उत्सर्ग कय वापस समय पानि अस्त्रसँ काटल जाईत अछि ।

॥ इति यज्ञोपवीत संस्कार ॥ 
नत्वानिवेदयति (वरूआक पिताक नाम) शर्मणः फ़ाल्गुन शुक्ल (तिथिक नाम) तिथौ मत्पुत्रस्योपनयनं भावि व्यवगत्य तत्सम्पादनीयम श्री मदभी: भदमी कृपयोति शुभम ई निमन्त्रण पत्र लाल रंगसँ लिखि भगवती आगु राखि । ताहिके बाद कुलदेवता, ग्राम देवताकेँ गीत सँ अराधना कऽ वरूआके चानन, काजर कय हाथमे एकचाकू नोकपर सौप सुपारीराखि माथ पर लाल पाग ध’ वरूआके आगाकऽ केशनेनहारि वरुआ के सिरपर अपन आँचर सँ भाँपि गीत गाईन के साथ वाँस काटय लेल जाइथ ओतय वरूआ पिठार सिन्दूर सँ पाँचटा वाँस मे हाथ सँ थप्पा देथि सिन्दूर लगावथि । ओहि दिन समाज के वाँस काटय के लेल हकार देल जाइत अछि । समाज लोकनि ओहिवाँस के काटि लैथ छथि तथा मण्डप के हिसाब सँ और वाँस कटैत छथि ।

आवश्‍यक व्यवहारिक मन्त्र

रक्षा बन्धन मन्त्र= 
येन वन्धो बली राजा दानवेन्द्गो महाबल ः 
। तेनत्वाप्रतिवध्नामि रक्षो माचल माचल ः । 

कुशोत्पाटन मन्त्र= (कुश उखारय के मन्त्र)

कुशाग्रे वसते रूद्ग ः कुश मध्ये तु केशवः । कुशमूले वसेद ब्रहा कुशान्मे देहि मेदिनि ॥ कुशोऽसि कुशोऽसि कुशपुत्रोऽसि ब्रह्यणा निर्मिता पुरा । देव पितु हितार्थाय कुश मुत्पाद्याम्यहम ॥

चौठचन्द्ग=

 
(फ़ल लय कऽ चन्द्गमा के दर्शनक मन्त्र) 

सिंह प्रसेनभवघीत सिंहो जाम्वहताहतः । सुकुमारकमारो दीपस्तेह्यषव स्यमन्तकः ।
प्रार्थना= 
दघिसंष तुषाराभम क्षीरोदार्णव सम्मवम्‌ । नमामि शशिनंभक्त्वा शम्मोर्मुकुट भूषणम्‌ ॥

॥ उल्काभ्रमण ॥ (दिवाली दिन सायंकाल उक्का के मन्त्र)

शास्त्रा शस्त्रहतानांच भूतानांभूत दर्शयोः । उज्जवल ज्योतिषा देहं निदहे व्योम वहिननाः ॥ अग्निदग्घाश्‍च्ये जीवायेऽप्यदग्घाः कुले मम । उज्जवल ज्योतिषा दग्घास्ते यास्तु परमांगतिम ॥ यमलोक परित्यज्य आगता महालये उज्ज्वलज्योतिषा वर्त्य पश्‍यन्तो व्रजन्तुते ॥

॥ अगस्त्यार्घदान ( अगस्त मुनिक तर्पण मन्त्र) ॥

कुम्भयोनिसमुत्पन्न मुनीना मुनिसत्तम । उदयन्ते लंका द्वारे अर्घोऽयं प्रतिगृहयताम ॥ शखं पुष्पं फ़लं तोयं रत्नानि विविघानिच । उदयन्ते लंकाद्वारे अर्घोऽयं प्रति गृहयताम । 

प्रार्थना= आतापि भक्षितो येन वातापि च महावलः । समुद्ग शोषितो येन समेऽगस्त्य प्रसिदतु ॥

॥ अनन्त धारण करय के मन्त्र ॥

अनन्त संसार महासमुद्रे भग्नास्या अभ्युद्घर वासुदेवा अनन्त रूपे विनियोजयस्व अन्तरूपाय नमोनमस्ते ॥

॥ देवोत्थान (कार्तिक शुदी एकादशी केँ भगवान केँ जगायबाक मन्त्र ॥

ब्रह्मेन्द्गरूदरभिवन्दित वन्दय मानो भवानुर्षिर्वदित वन्दनीय ः । प्राप्ता तवेयं किल कामुदाख्या जागृष्व जागृष्व च लोकनाथ ॥ मेघागता निर्मल पूर्णचन्द्गः शारदय पुष्पाणि मनोहराणि । अहं ददानीति च पुण्यहेतो जागृष्व जागृष्व च लोकनाथ ॥ उतिष्ठो तिष्ठ गोविन्द त्यज्य निद्गां जगत्पते त्वया चोत्थीय मानेन उत्थित भुवन त्रयम ॥

॥ मेष संक्रान्ति घटदान मन्त्र ॥ ( जूड़ शीतल ) 

ॐ वारिपूर्ण घटायनमः । अक्षतसँ तीन वेर कलश पर । कुशके ब्रह्यण पर ३ वेर । ॐ ब्राह्मणाय नमः । दानः- ॐ अदयेत्यादि मेषार्क संक्रमण प्रयुक्त पुण्याहे अमुक गोत्रस्य पितुः (गोत्राया मातु) अमुक शर्मा (देव्या) स्वर्गकामः ( कामा ) इमं वारिपूर्ण घट यथानाम गोत्राय व्राह्मणाय महंददे । ॐ अद्य कृतैतत वारिपूर्ण घटदान प्रतिष्ठार्थ, एताबद द्गव्यमूल्यक हिरण्यमाग्निदैवतं यथानाम गोत्राय ब्राह्यणाय दक्षिणा महं ददे । 

॥दुर्वाक्षत मन्त्रः ॥ ( आशिर्वादक मन्त्र ) 

ॐ आब्रह्यन ब्राह्यणो ब्रह्यवर्चसी जायतामाराष्टे राजन्य ः शूर इषव्योऽपि ब्याघि महारथो जायतम दोग्घी धेनूर्वोढा ऽनडवानाशुः सप्ति पुरन्धिर्योषा विष्णुरथेष्ठा समेयोयुवाऽस्यजमानस्य विरोजायताम निकामे निकामे नः पर्ज्जन्यो वर्सतु फ़लवत्यो न औषधयः पच्यन्ताम योगक्षेमोन कल्पताम्‌ मन्त्रार्थाय सिद्घय ः सन्तु पूर्णासन्तु मनोरथा शत्रुणां बुद्घिनाशोऽस्तु मित्राणामुदयस्तवः ।

॥ वाजसनेयी यज्ञोपवीत मन्त्र ॥

ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहज

ं पुरस्तात । आयुष्यमग्रं प्रतिमुंच शुभ्रं यज्ञोपवीतम बलमस्तुतेज ः ॥

॥ छ्न्दोग यज्ञोपवीत मन्त्र ॥

ॐ यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वोपवीतेनोपनह्यामि ।

॥ संक्षिप्त वैतरणी दान ॥

ॐ कृष्णगव्यै नमः ३ तीलसँ। कुशक ब्राह्यण पर ३ वेर ॐ ब्राह्मणाय नमः । ॐ उष्णे वर्षति शीत वा मारूते वाति यामुशम । दातारं त्रायते यस्मात्तस्मा द्घैतणी स्मृता ॥ यमद्वारे महा घोरे कृष्णां बैतरनी नदी । तासांनिसरन्तुन्ददाम्येन कृष्णां वैत रीचं गाम । इति पठित्वा कुशत्रय तिल जान्यादान- ॐ अदामुक गोत्रस्य पितुरमुक शर्मण ( मातुरामुक देव्या ) यम द्वार स्थित वैतरनी नदी सुख संतरण काम इमां कृष्णां गांरूद्ग देवता ममुकगोत्रस्य अमुक शर्मण ब्राह्यणय तस्यमांह सम्प्रददे ” ॐ स्वारस्वीति प्रतिवर्चनम । ओमदय कृतैतत कृण्ण गवीदान प्रतिष्ठार्थ मेतावद द्रव्य मूल्यक हिरण्य मग्नि दैवतम दक्षिणा प्रतिग्ररिहीता ॐ स्वस्ती त्युकत्वा गोपुच्छं गृहणमं यथा साखं कामस्तुति पठेत गायके नहीं रहत्मापर द्गव्य राखि । 

॥ संक्षिप्त दाह-संस्कार ॥

कर्त्ता स्नान कए नूतन वस्त्रादि पहिरि पूर्वमुह बैसि नूतन-मृतिका पात्रमे जल भरि जल अभिमन्त्रित करथि- ॐ गयादीनि च तिर्थानि येच पुण्या ः शिलोच्चयाः । कुरूक्षेत्रं च गंगा च यमुनां च सरिद्वशम्‌ । कौशकि चन्द्गभागांच सर्वपाप प्रणाशिनीम ॥ भद्रा वकाशां सरयूं गण्डकी तमसान्तया । धैनवंच वराहंच तीर्थपीण्डारकन्तथा । पृथिव्यां यानि तीर्थानि चतुरः सागरस्तथा ॥ मनसँ ध्यान करैत जलसँ दक्षिण सिर शवकें स्नान करा नूतन वस्त्र द्वयं यज्ञोपवीतं पुष्प चन्दनादिसँ अलंकृत कय चिता पर उत्तर मुँह अद्योमुख पुरूष के तथा स्त्रीगण के उत्तान शयन करा, अपसव्य भय दक्षिणाभिमुख भय वाम हाथमे उक लय-मन्त्र= देवश्‍चाग्नि मुखाः सर्वे कृत स्नपनं गतायुषमेनं दहन्तु । मनमे ध्यान करैत ॐ कुत्वा सुदुष्करं कर्म जानता वाप्य जानता । मुत्युकालवशं प्राप्तं नरं पचत्वमागतम । घर्मा धर्म समायुक्तं लोकमोह समावृत्तम । दहेयं सर्वगात्राणि दिव्यलोकान सगच्छतु ॥ इति मन्त्रद्वयं पठित्वा त्रिः प्रदक्षिणी कृत्य ज्वलदुल्मुकं- शिरो देशे ददयात । तत स्तुण काष्ठ घृतादिकं चितायां निक्षिप्य कलोतावशेषं दहेता ततः प्रदेश मात्र सप्र काष्टकामि ः सह प्रदिक्षिणां सप्रकं विधाय कुठारेण उल्मुंख प्रतिप्रहार सप्रकं निधाय क्रव्यादान नमस्तुभ्य मित्ये कैकां काष्टि काग्नौ क्षिपेत। ततः ॐ अहरहर्न्नयमानो-गामश्‍वं पुरूषंम पशुम । वैवश्‍वतो न तुप्यति सुरभिरिव दुर्मिति ः । इति यमगाथा गायन्तो बालपुरस्सराः वृद्ध पश्‍चिमा पादेन पादस्पर्शम अकुर्वाणाः जलाशयं गच्छेयुः ।

त्रिलांजलिः= ॐ अदयमुक्त गोत्रः ऽमुक प्रेथ एषतिलतोयां जलिस्तेमया दीयते तवोपतिष्ठताम । बादमे घरपर अग्नि, पानी, लोह, पाथर के अनामिका अंगुली सँ स्पर्श कय इति ।

॥ अथः मृतोद्देश्यक सजल घटदान विधि ः ॥

दाह संस्कारक तेसर दिन अस्थि संचय कयलाक वाद मृतक केँ घरक द्वारि पर या पिपर गाछपर एक छोट माटिक घड़ा मे नीचा छेद कय ओहिमे कुश दय उपर मे लटका देबाक चाही । 
घट दान मन्त्रं= दाह कर्त्ता अपसव्य भय दक्षिण मुँह वैसि मोड़ा, तिल, जल लय - ॐ अद्यामुक गोत्रस्य पितुः अमुक प्रेतस्य सर्वपाप प्रशान्त्यध्वश्रम विनाश कामः अदयादय शौचान्त दिनं यावदाकाशाधिकरणक सजल घटदान महं करिष्यो । ई मन्त्र पढ़ि घट के उत्सर्ग करी ।

॥ अथः मृतोद्देश्यक सन्ध्या कृत्यम्‌ ॥

सायंकाल घटक निचा स्थान के गायक गोवर सँ निपि तीन एक फ़ुटक काठी के खराकय एक वर्तनमे जल- दूध मिलाय ओहि स्थान पर माटिक दिप, फ़ल उन्जला के माला राखि निचाकऽ मन्त्रसँ उस्सर्ग करि । कर्त्ता अपसव्य भय (उतरी तथा जनेउ के गलामे माला जकाँ राखि ) दक्षिणा मुँहे बैसि बामा जांघ के खसाय मोड़ा, तिल, जल लऽ मन्त्रं- ॐ अस्यां सन्ध्यायां अमुक गोत्र पितः उमुक प्रेत इदं जलं ते मया दीयते तबोपतिष्टताम ॐ अत्र स्नाहि -
(१) 
(२)- ॐ अस्यां सन्ध्यायाम अमुक गोत्र पितः अमुक प्रेत इदं दुग्धं तेमया दीयते तवोपतिष्टताम, इदं दुग्ध पिव ।
(३) ॐ अस्यां सन्ध्यायाम अमुक गोत्र पितः अमुक प्रेत इदं माल्यं तेमया दीयते तवोपतिष्टताम । इदं माल्ये परि घेही ।
(४) ॐ अस्यां सन्ध्यायाम अमुक गोत्र पितः अमुक प्रेत एष दीप ः तेमया दीयते तवोप तिष्टताम ॥

॥ आश्विन पितृ तर्पण विधि ॥

भादव शुक्ल पुर्णिमा दिन अगस्त मुनिक तर्पण पुर्व मुँह भय, खीरा सुपारी, राड़िक फ़ुलकी किछु द्रव्य लऽ पहिले ॐ अपवित्रः पवित्रोवा सर्वावस्था गतोऽपिवा । यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स वाह्‍याभ्यन्तर ः शुचि ः । ॐ पुण्डरीकाक्षः । ई मन्त्र पढ़ि शरीर के जलसँ शिक्त कय पुर्व मुख भय नदी, तलाव तथा घर मे जल के सन्निकट स्नानक स्थान पर हाथमे उपर के सभ समान केँ लऽ तर्पण शुरू करी । अगस्यतर्पण मन्त्र= कुम्भयोनि समुत्पन्न मुनीनां मुनिसत्तम । उदयन्ते लंकाद्वारे अर्घोऽयं प्रति गृहयताम ॥ शखं पुष्पं फ़लं तोयं रत्‍नानि विविघानि च । उदयन्ते लंकाद्वारे अर्घोऽयं प्रतिगृहयताम ॥ आतापि भक्षितो येन वातापि च महावलः । समुद्घ शोषितो येन स मेऽगस्य प्रसीदतु ॥ ई मन्त्र पढ़ि तीन वेर हाथक अग्रभाग दऽ जल खसाबी ।

ताहि के प्रात:काल (यानि पड़िव तिथिसँ ) पितृ तर्पण शुरू करी । विधान= दूटा तेकुशा बनावि, दूटा मोड़ा, एक विरनी , एक अंगुठी कुशके बनाय वामा हाथमे विरनी तथा दाहिना हाथमे देवकर्म के समय तेकुसा के उपर अंजुली मे जल लऽ ॐ सूर्यादि पंच देवतातुप्यीमिदं जलं तस्मै स्वधा, तस्मै स्वधा तस्मै स्वधा मन्त्र पढ़ि तीन वेर तेकुशापर जल दी । ॐ भगवन विष्णोःतृप्यंता मिदं जलं तस्मै स्वधा, तस्मै स्वधा, तस्मैस्वधा, एहि तरहें सर्वदेवताक उपरोक्त मन्त्र सँ जल दी । लक्ष्मी, सरस्वती आदिपुरूष, अनादि पुरूष, इन्द्रादि दशदिग्पाल, सूर्यादि नवग्रह, ससीत राम लक्ष्माणाः, दूर्गा, कालिका देव्या, सप्तर्षयः राजणयः, ग्राम देवता, कुलदेवता, ईष्टदेवता, एहि नामक उच्चारण कय बहुत संख्या मे तृप्यंन्तामिदं जलं एक के साथ तृप्यतामिदं जलं तस्मै स्वाधा ३ वेर कहि कुशपर जल दी, एहि के बाद अपसव्य भय- जनेउ के गरामे माला जकाँ धारणकऽ हाथमे मोड़ा लय दक्षिण मुँह घुमि एक मोड़ाके निचामे राखि जिनका जे गोत्र होय वो जेना ( शाणिल्य गोत्रोत्पन्नः पुरूष के लेलं शाण्डिय गोत्रोत्पन्ना, उपर पुरूष पितर के नाम के साथ शर्मणः स्त्री पितर के नामके आगा देव्या कहि अंगुष्ठा और तर्जनी अंगुलीक मध्यभाग पितृतीर्थ सँ जल खसाबी । मोड़ा के उपर तीन वेर । यथानाम गोत्र उत्पन्न ः पिता

यथानाम शर्मन तृप्यामिदं जलं तस्मै स्वधा, तस्मै स्वधा, तस्मै स्वधा एहितरहें पितृपक्ष मे मातृ पक्षमे करी । 
पिता, पितामाह, प्रपितामह, माता पितामही, प्रपितामही ।

मातृपक्षमे= मातामह (नाना), प्रमातामह, वृद्धप्रमातामह, मातामही (नानी), प्रमातामही, वृद्घप्रमातामही । 

नोट जिनकर नाम गोत्रक पता नहि होय वो ( यथानाम गोत्रः यथानाम शर्मन कहि, स्त्री पक्षमे यथानाम गोत्रोत्पन्ना याथा नाम देव्या कहि जलदान करी ।

अन्तमे कपड़ा के एक कोन भिजाय ओहि कपड़ा के निचोरि कय पृथ्वी पर जल ३ वेर खसाबी । मन्त्र ॐ अप्यदग्धाश्च जे जीवा जेप्यदगधा कुलेमम भूमौ दत्तेन तुप्यन्तु तृप्तायान्तु परांगतिम । एहि के बाद पुनः स्नान कय कपड़ा धारण करी । इति ।